युवा कवि "प्रेम कुमार आनंद " की ओजस्वी कविताएं 2021| PREM KUMAR AANAD KI KAVITAYEN

दोस्तों आजकल के रेप गानो और हिप-हॉप के ज़माने में युवाओं में एक शांत और गंभीर कवि को ढूंढ पाना एक कठिन काम हो गया है हालाँकि कुछ पिछली पीढ़ी की बूढी कलमें आज भी साहित्य को बचाने का काम रहीं है,वही युवाओं में साहित्य के प्रति आज रुझान कम देखा जा रहा है। 

दोस्तों मैं काफी समय से अपने एक मित्र प्रेम कुमार आनंद जी की कविताएं Facebook पर पढ़ रहा हूँ। प्रेम कुमार आनंद बहुत अच्छी कविताएं लिखते है,प्रेम कुमार आनंद काफी कम उम्र के कवि हैऔर एक Social Worker हैं 
और बिहार राज्य में मुंगेर के रहने वाले है। 
 
आज प्रेम जी से अनुमति लेकर उनकी कुछ कविताएं यहाँ इस पेज पर प्रकाशित करने जा रहा हूँ 

                                      
ओजस्वी कविताएं 2021




विभक्त हूँ, विरक्त हूँ,
विमुक्त सा अनुरक्त हूँ,
आलाप हूँ, विलाप हूँ,
उद्विग्न सा प्रलाप हूँ ।
हुँकार दिल में उठ रहा,
पर लब न ये आजाद हैं,
खामोशियाँ मचल रही,
क्यों आँधियाँ आबाद है ।
कदम थमे हैं यूँ मेरे,
दिनमान जैसे थम गया,
पिघल रहा यूँ मोम सा,
आवेश हिम् सा जम गया ।
समर नया ये सज रहा,
श्रृंगाल भैरव गा रहा,
तू जग, मिटा दे तम घना,
विजय का पथ बुला रहा ।
- प्रेम



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उम्मीदों से बनती दुनियाँ,
उम्मीदों की सजती दुनियाँ,
उम्मीदों ने ख्वाब दिखाया,
उम्मीदों में बिकती दुनियाँ...
राहों में भ्रम थे मंजिल से,
मंजिल थी नजरों से ओझल,
उम्मीदों ने राह दिखाया,
उम्मीदों से मिलती दुनियाँ...
- प्रेम



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दिवस कब का ढ़ल चुका,
अवसान की ये राह है,
दिन भर थका हूँ सफ़र में,
विश्राम की अब चाह है...
दिन तेरी हीं याद अब तो,
ख्बाब बन कर आ रहे,
हम हमसफ़र तो थे नहीं,
अब साथ छोड़े जा रहे...
वो निशा देखो आ गयी,
मुझको बुलाने के लिए,
मैं जा रहा अब नींद में,
खुद को भुलाने के लिए...
फिर सुबह होगी नई,
सूर्य नभ में होगा उदय,
ये खेल फिर होगा शुरू,
जागूँगा मैं बन कर प्रलय...
© प्रेम




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तुम शाम सी छुपने लगी,
मैं धूप सा ढलने लगा,
तुम रूह में बसती गयी,
इक ख़्वाब सा बनने लगा...
मचले थे अरमां दिल में फिर,
ये उन दिनों की बात है,
तुम भीड़ में गुम सी गयी,
तन्हा सा मैं चलने लगा...
हमने बुने सपने नए,
ख्वाबों सी है दुनियाँ कोई,
तुम गीत सी बनती गयी,
मैं धुन नए बुनने लगा...
अब तलक हुँ ख़्वाब में,
यादों में गुम हूँ आपके,
तुम धड़कने बनती गयी,
मैं दास्ताँ बनने लगा...
© प्रेम



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इस अंधेरे में कभी, दीप बन के जल
थक के रुकना नहीं, उठ के तू मचल
इस अंधेरे में कभी, दीप बन के जल....
जा रही रात अब सिमटने को
आ रहा भोर फिर बदलने को
रक्तिम हो रहा है आसमाँ फिर
दिनकर ले रहा अंगड़ाइयाँ फिर
बाँसुरी फिर अधर को छू कर के
फिर से गीत में यूँ ढल कर के
बन के आम जन का नायक तू
तज के मौन, फिर से तू संभल.....
इस अंधेरे में कभी, दीप बन के जल
थक के रुकना नहीं, उठ कर तू मचल
इस अंधेरे में कभी, दीप बन के जल....
© प्रेम




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चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
आ देख ! गगन मुझमें लय है,
फिर से मैंने बांधा तूणीर
अब झूम रहा मुझमें जय है...
रण-आमंत्रण स्वीकार करो
ये काल-चक्र का फेरा है,
सज चुका रश्मि सा रथ मेरा
आ गयी युद्ध की बेरा है...
- प्रेम



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अभी भी रण विशेष है,
छिड़ा लहू का फाग है...
आरंभ हूँ, विचित्र हूँ,
ये नव समर का राग है...
- प्रेम


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तोड़ कलम अब तेग बनाकर
क्यूँ ना अब हम भी तोलें
जिनकी हार सजायी तुमने
क्यों ना अब वो भी बोलें...
वो बैठे राजसभाओं में
वो गढ़ते खेल विधानों का
तुम दावानल सा बढ़े चलो
अब प्रश्न तुम्हारे मानों का...
छुपा रिपु जो छद्म वेश धर
उनको बढ़ ललकारो आज
कर शर का संधान दिव्यतम
उनके शीश उतारो आज...
© प्रेम



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माँ तुम्हारा स्नेहिल स्पर्श
अब भी सहलाता है मेरे माथे को
तुम बहुत याद आती हो माँ...
क्या तुम अब सचमुच नहीं हो
नहीं,
मेरी आस्था, मेरा विश्वास, मेरी आशा
सब यह कहते हैं कि माँ तुम हो...
माँ
मेरे चारों ओर घूमती यह धरती, यह अनंत आकाश
तुम्हारा ही तो विस्तार है
© प्रेम



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उन उनींदी आँखों में सपने,
बुझते देखा, मिटते देखा,
शहरों की गलियों में हमने,
उसे टूट कर गिरते देखा....
झुकी कमर, निःशक्त भुजाएँ,
धुंधली नजरों की गाथाएँ,
सागर में मिलती नदियों सी
उसे बिखर कर बहते देखा....
एक पुरानी फटी पोटली,
दबा बगल में भटक रहा था,
जख्मी सा था तन-मन उसका,
उसे धूप में जलते देखा....
जिन हाथों ने फसल उगाये
शहर सजाये, महल बनाये,
महलों के द्वारों पर अक्सर,
उसे भूख से भिड़ते देखा....
© प्रेम



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जब सुबह सजी, ये समर सजा,
हर चेहरे ने बाँधा नकाब....
जब द्वन्द सजी, तो छल भी सजा,
है छद्मों का भीषण प्रलाप....
© प्रेम




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