पार्थियन /पल्हव/ शासक ( ई0 .. से ई0.... तक )
PARTHIAN/PALLAV/ SHASHAK AND KUSHAN VANSH HISTORY
इतिहास: बैक्टिया के अलावा सेल्युकस का स्वतंत्र हुआ दूसरा प्रांत पार्थिया था। अर्सेस नामक व्यक्ति ने तीसरी सदी ई0पू0 में यहां राष्टीय सरकार स्थापित की। ई0पू0 दूसरी सदी के मध्य में पर्थियन राजा मिथ्रदात प्रथम अपनी सेना सिंधु नदी तक ले आया। इसके काफी समय पश्चात् माओस नामक एक शक्तिशाली व्यक्ति ने पंजाब /पश्चिम/ में अपना प्रभुत्व जमा लिया। माओस संभवतः प्रथम शक क्षत्रप /तक्षशिला/ ही था। पार्थियानों का दूसरा वंश कंधार में शासन करता था। पर्थियानों को शकों से ही संबंधित माना गया है। अतः शक - पार्थियन’’ भी कहा जाता हैं। वनान, पर्थियानों का पहला भारतीय शासक था।इसने सिक्कों पर महाराजाधिराज की उपाधि ली। सिक्के ग्रीक एवं खरोष्ठी लिपि में हैं। शक क्षत्रप माओस से इसके वैवाहिक संबंध थे। इस वंश का सर्व प्रतापी राजा गोण्डोफर्नीज था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसके शासन काल में 57 ईसवी को ईसाई धर्म प्रचारक सन्त थॅामस भारत आए थे। किन्तु वी0 स्मिथ ऐसा नहीं मानते। ईसाई अनुश्रुतियों में गोण्डोफर्नीज को सम्पूर्ण भारत का राजा कहा गया है। सिक्कों से एण्डेगस और पकोरिस नामक उत्तराधिकारियों का ज्ञान होता है।पार्थियानी सिक्कों पर ध्रमिय शब्द अंकित है। तथा कुछ शासकों ने बौद्ध धर्म अपना लिए थे।
कुषाण वंश ( ई0 .. से ई0.... तक )
आरंभिक इतिहास: विदेशी आक्रमणकारियों में अंतिम आक्रमणकारी कुषाण ही थे। कुषाण यू-ची तथा तोखारी भी कहलाते हैं। हूणों द्वारा खदेड़ी गई कान्स प्रान्त /चीन/ की यू - ची जाति, शकों को भगा कर बैक्टिया तथा ऑक्सस नदी घाटी में बस गई। यहीं पर यू - ची जाति पांच शाखाओं में विभाजित हो गई। धीरे - धीरे कुई - ओ - चांग शाखा ने कियु - सियु - कीयो /कुजुल कडफिस/ के नेतृत्व में अन्य चार शाखाओं को हरा कर स्वयं को //कियु - सियु - कीयो /कुजुल कडफिस/// वांग /राजा/ घोषित किया।
कियु - सियु - कीयो /कुजुल कडफिस/ ( ई0 15 से ई0 65 तक )-
इसकी जानकारी के प्रमुख स्त्रोत इसके सिक्के हैं। जिन पर महाराजाधिराज अंकित है। इसके प्रारंभिक सिक्कों पर एक ओर यूनानी नरेश हर्मियस तथा दूसरी ओर स्वयं का चित्र अंकित है। अर्थात् यह प्रारंभ में हर्मियस की अधीनता को स्वीकार करता था। किन्तु शनैः - शनैः यवन हर्मियस से काबुल तथा कश्मीर विजित कर यह भारत में कुषाण सत्ता का संस्थापक राजा बना।
कुजुल ने केवल ताम्र सिक्के ही ढलवाए जिन पर रोमन प्रभाव दिखाई देता है। कुजुल की मुद्राएं द्विलिपि यूनानी तथा खरोष्ठी में हैं। जिन पर सच धर्म तिष्ठ शब्द अंकित है। जिससे ज्ञात होता है कि यह बौद्ध मत अनुयायी था। ईसवी सन् 65 में इसकी मृत्यु हो गई।
वीम कडफिस ( ई0 65 से ई0 78 तक )-
भारत में इसने संपूर्ण पंजाब, मथुरा तथा बनारस तक के क्षेत्र को विजित कर लिया था। इसकी राज्य की सीमा चीन एवं रोमन साम्राज्य को स्पर्श करती थी। वीम ने अपने सिक्के ताम्र एवं स्वर्ण में ढलवाए। इसके सिक्कों पर शिव , नंदी एवं त्रिशूल के चिन्ह अंकित हैं , जो इसे हिन्दू शैव सम्प्रदाय का अनुयायी सिद्ध करते हैं। माट/मथुरा/ से प्राप्त सिंहासनारूढ़ मूर्ति की पहचान वीम से ही की गई है। वीम ने महाराजाधिराज, सर्वलोकेश्वर आदि उपाधियां धारण की।
कनिष्क ( ई0 78 से ई0 101 तक )-
वीम /चीन को वार्षिक कर प्रदान करने वाला शासक/ से कनिष्क के संबंध क्या थे , यह स्पष्ट नही है। संभवतः यह वीम के पूर्वी क्षेत्र का प्रांत पति था। वीम की मृत्यु के बाद अन्य प्रतिद्वंद्वी क्षत्रपों को परास्त कर यह शासक बना तथा पुरूषपुर/पेशावर/ को अपनी राजधानी बनाया।
कनिष्क के विजयी अभियान
1. पूर्वी भारत की विजय: श्री धर्मपिटक निदान सूत्र के अनुसार इसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण करके अश्वघोष तथा बुद्ध का भिक्षा पात्र प्राप्त किया। तदुपरांत बिहार एवं उत्तर बंगाल को विजित किया।
2. चीन के साथ युद्ध: कनिष्क ने चीनी सेनापति पान - चाओ को परास्त कर खेतान, काशगर एवं यारकंद पर विजय प्राप्त की। वीम द्वारा चीन विजय का प्रथम प्रयास असफल रहा था तथा वीम , चीन का करद शासक बना गया था। कनिष्क ने चीन विजय के दौरान दो राजकुमारियों को बंदी बना कर लाया तथा भारत में नाशपाती एवं आडू के फलों का परिचय कराया।
3. सिंध विजय:
4. कश्मीर विजय: राजतरंगिणी में कनिष्क की कश्मीर विजय का उल्लेख है। कश्मीर में इसने एक नगर कनिष्कपुर की स्थापना भी की।
5. अफगानिस्तान विजय:
6. मालवा विजय:
7. दक्षिण भारत की विजय: चीनी ग्रंथ कनिष्क को दक्षिण भारत का विजेता भी मानते है।
कनिष्क के कार्य: कनिष्क के साम्राज्य की दूसरी राजधाानी मथुरा थी। किन्तु यह स्वयं पेशावर से शासन करता था। अन्य स्थानों जैसे:- पश्चिमोत्तर भारत पर ‘‘ नल ’’ ‘‘ वेशपशि ’’ और ‘‘ लियक ’’ मथुरा पर ‘‘ खरमल्लान ’’, बनारस में ‘‘ वनस्पर ’’ कौषम्बी में ‘‘ धनदेव ’’ तथा अयोध्या में ‘‘ सत्यमित्र ’’ इसके क्षत्रप थे। कनिष्क ने देवपुत्र की उपाधि ली तथा रोमन सम्राट की उपाधि का अनुकरण करते हुए ‘‘ कैसर ’’ उपाधि भी धारण की। ‘‘ सी - यू-की ’’ नामक चीनी ग्रंथ से कुण्डलवन में चौथी बौद्ध संगीति के आयोजन का ज्ञान होता है। इस संगीति में महायान शाखा का प्रभुत्व रहा , जिसमें संस्कृत भाषा की प्रमुखता रही एवं महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना हुई। कनिष्क ने महायान बौद्ध प्रचारक मध्य - एशिया एवं चीन भी भेजे थे। पुरूषपुर में विशाल स्तूप तथा कनिष्क चैत्य का निर्माण कराया। कुषाणों ने चीन से रोम एवं ईरान जाने वाले महान रेशम मार्ग /सिल्क रूट/ पर आधिपत्य कायम रखा जो उनकी आय का प्रमुख स्त्रोत था। रेशम मार्ग पर आधिपत्य रोम - पार्थिया की शत्रुता का परिणाम था। कनिष्क की तीन प्रकार की मुद्राएं प्राप्त होती हैं। 1. यूनानी धर्म 2. ईरानी धर्म 3. बौद्ध धर्म से संबंधित है। कुछ सिक्कों में इसे बलि देते हुए बताया गया है। तक्षशिला में सिरमुख्य नगर की स्थापना कनिष्क के द्वारा की गई। सिक्कों की भाषा यूनानी एवं ईरानी थी।
कनिष्क की सभा में बौद्धों की रामयण मानी जाने वाली बुद्धचरित के लेखक अश्वघोष, नागार्जुन /माध्यमिक सूत्र/, पार्श्व, मथुरा/विद्वान मंत्री/आदि विद्वान थे।
कनिष्क की मृत्यु: कनिष्क के सैनय अभियानों से त्रस्त हो कर सैनिकों ने बीमारी के दौरान ईस्वी सन् 101 को मुंह पर लिहाफ ढांक कर हत्या कर दी। संभवतः इस दौरान कनिष्क मध्य एशिया के अभियान पर था।
कनिष्क के उत्तराधिकारी
वाशिष्क:
हुविष्क: इसे कनिष्क का पुत्र माना गया है। हुविष्क ने कश्मीर में हुविष्कपुर की स्थापना की। यह बौद्ध धर्म का अनुयायी था।
वासुदेव प्रथम: यह कुषाण वंश का अंतिम योग्य शासक था। इसने अपनी राजधानी पुरूषपुर से मथुरा ले आया। सिक्कों से प्राप्त शिव और नंदी इसे शैव मतावलम्बी सिद्ध करते हैं।
कुषाणों का पतन: कुषाण साम्राज्य का पतन उन सासानी आक्रमणों से हुआ जिन्होने अरसेकी वंश को हरा कर तीसरी शताब्दि ईसवी के आरंभ में ईरान में एक शक्तिशाली साम्राज्य की सथापना की। हालांकि बाद में भी किदार कुषाण नाम से कुषाणों की एक शाखा शासन करती रही जिनके पतनोंपरांत विभिन्न छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित हुए।
कुषाणों का महत्व: कनिष्क का काल संस्कृत भाषा एवं साहित्य की प्रगति का काल था। पार्श्व, वसुमित्रख् नागार्जुन, संघरक्ष तथा अश्वघोष कनिष्क के संरक्षक थे। चरक इसका राजवैद्य था। जबकि कूटनीतिज्ञ माथर/मथुरा/ इसका मंत्री था। यूनानी वास्तुशिल्पी अलिंशल इसका प्रमुख वास्तुकार था। विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में था। प्लिनी ने रोम से भारत जाने वाले सोने पर खेद प्रकट किया है। चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर में हुआ था परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार इसका आयोजन जालंधर में हुआ था। जो स्थान हीनयान संप्रदाय में सम्राट अशोक को प्राप्त है वही स्थान महायान संप्रदाय में सम्राट कनिष्क का है। कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध, शिव, वायु, अग्नि, सूर्य, चंद्र, सुमेराई देवी ‘नन’, बलूची देवता ‘नैना’ तथा ग्रीक युद्ध देवता की आकृतियां मिलती हैं। कनिष्क ने मातंग कश्यप को महायान धर्म के प्रचार हेतु चीन भेजा था।
प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली का प्रथम श्रेय कुषाणों को ही प्राप्त होता है। कश्मीर, कोसल, विदर्भ तथा कलिंग - हीरे, मगध - रेशम तथा बंगाल - मलमल हेतु प्रसिद्ध था।
कला की दृष्टि से कुषाण काल गौरवपूर्ण है। इसी समय अजंता के भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ। मूर्तिकला की निम्नलिखित शैलियों पर कार्य हुआः-
गांधार कला शैली: ई0पू0 50 से ई0 सन 500 के मध्य का समय इस शैली का समय माना जाता है। गांधार शैली को ग्रीको-रोमन, ग्रीको-बुद्धिस्ट या इण्डो-ग्रीक शैली भी कहा जाता हैं। इसका विकास भारत के गांधार क्षेत्र में हुआ अतः इसे कला की गांधार शैली कहा जाता है। इस कला के नमूने विमरन, लैरियन, हस्तनगर, तक्षशिला से प्राप्त होते हैं। इस कला की प्रमुख विशेषताएं अधोलिखित हैंः
- मानव शरीर की सुंदर रचना एवं मासपेशियों की सुक्ष्मता।
- पारदर्शक वस्त्र एवं उनकी सलवटें।
- अनुपम नक्काशी।
- इसके अंतर्गत बुद्ध एवं बोधिसत्वों की अनेक मूर्तियां बनी हैं। गांधार कला में कोस्थि पद्धति का प्रभाव है।
मथुरा कला शैली: ई0 150 से ई0 सन 300 के मध्य का समय इस शैली का समय माना जाता है। यहां बनी मूर्तियां तक्षशिला, श्रावस्ती एवं सारनाथ तक भेजी जाती थीं। मथुरा शैली की प्रायः सभी मूर्तियां फतेहपुर सीकरी के निकट से प्राप्त लाल पत्थरों से निर्मित हैं। इस कला की प्रमुख विशेषताएं अधोलिखित हैंः
- भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य का प्रस्तुतिकरण।
अमरावती कला शैली: ई0पू0 150 से ई0 सन 400 के मध्य का समय इस शैली का समय माना जाता है। दक्षिण भारत की यह शैली भारहुत कला /150 ई0पू0/, सांची कला/ई0पू0 पहली सदी/ गया की कला /ई0पू0 150 से ई0पू0 100/ तथा गुप्त एवं पल्लव कला को जोड़ने वाली शैली है। इसमें धर्म, त्याग एवं निर्वाण महत्वपूर्ण नहीं है, वरन् कलाकारों का आदर्श कला के लिए कला है। इस शैली की मूर्तियों में सफेद संगमरमर का प्रयोग हुआ है। इस कला सातवाहनों का पूर्ण सहयोग मिला।
स्मरणीय तथ्य:
- मिलिन्दपन्हो में लिखा है कि महात्मा बुद्ध की संबंधी स्त्री /गौतमी/ ने वस्त्र निर्माण की पांच पद्धतियों का प्रयोग किया। इसमें ही 75 व्यवसायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं
- पतंजलि /महाभाष्य/ ने कहा है कि मथुरा में एक विशेष प्रकार का कपड़ा ‘सटक’ तैयार किया जाता था।
- महावस्तु में राजगृह के 36 प्रकार के शिल्पियों का उल्लेख है।
- कनिष्क द्वारा चीन पर हमले का तात्कालिक कारण - हान परिवार की दो राजकुमारियों से विवाह प्रस्ताव चीन द्वारा अस्वीकार किया जाना।
- मथुरा कला शैली को कुषाण शासकों का भरपूर संरक्षण मिला। यह कला यथार्थवादी न हो कर आदर्शवादी थी। जिसमें बलुआ लाल पत्थरों का प्रचुर उपयोग किया किया है।
- अमरावती शैली का प्रभाव नासिक, भोज, विदिशा एवं कार्ले के विहारों से प्राप्त होता है।
- कुषाणों ने देवपुत्र की उपाधि धारण की जो कि चीनी प्रभाव की देन माना जाता है।
- चीन की दीवर हुआंग ती /300 ई0पू0/ में बनवाई थी।
- वीमा ने सर्वप्रथम स्वर्ण मुद्रा जारी की।
- खोटानी पाण्डुलिपि में कनिष्क को चन्द्र कनिष्क कहा गया है।
- कुषाणों का मध्य-एशिया से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था।
कुषाणों के पतन पर स्थापित राज्य
उत्तरी भारत के देश राज्य
( ई0 .. से ई0.... तक )
माघ वंश
इतिहास: माघ वंश की स्थापना भीमसेन ने कौषाम्बी में की थी। गिनजा अभिलेख/प्रयाग/ से ज्ञात होता है कि यह घटना ‘‘ हुविष्क ’’ के शासन काल की है। इनके कोसम /कौषम्बी/ तथा बांधवगढ़ /रीवा/ से प्राप्त अभिलेखों की तिथि शक सम्वत् में है। समुद्रगुप्त ने माघवंशी शासक रूद्रदेव को परास्त कर कौषम्बी को जीता।
शक मुरूण्ड वंश
इतिहास: मुरूण्डों ने अपना शासन अयोध्या में स्थापित किया इसका विवरण टॉलेमी के भूगोल से भी प्राप्त होता है।
नाग वंश
इतिहास: ईसा के आरंभिक तीन शताब्दियों में नागों के तीन या चार राज्य थे। पुराणों के अनुसार भिलसा/विदिशा/, कांतिपुरी, मथुरा तथा पद्मावती इनकी राजधानियां थीं। नागों की सत्ता का प्रमुख केन्द्र पद्मावती /पद्म पवैया - ग्वालियर/ थी। पद्मावती के नागों को भार शिवनाग कहा जाता है।पद्मावती में नौ नाग राजाओं ने राज्य किया जिनमें से भवनाग के सिक्के हमें प्राप्त होते हैं। भवनाग का उल्लेख वाकाटक वंश के लेखों में रूद्रसेन प्रथम के नाना के रूप में हुआ है। अभिलेखों के अनुसार भारशिव , नाम इसलिए पड़ा क्योंकि ये अपने कंधों पर शिव लिंग धारण करते थे। मान्यता है कि इन्होंने भागीरथी/गंगा/ के पवित्र जल से स्नान करके दस अश्वमेध यज्ञ किए इसी आधार पर बनारस के एक गंगाघाट का नाम दषाश्वमेध घाट पड़ा। माना जात है कि कुषाणों को भारत से बाहर निकालने का कार्य भारशिवों ने ही किया। इसका/पद्मावती/ अंतिम शासक नागसेन को समुद्रगुप्त ने परास्त किया। विदिशा की नाग राजकुमारी कुबेरनागा से चंद्रगुप्त द्वितीय ने विवाह किया था। स्कंदगुप्त के शासनकाल में नागों को महत्वपूर्ण पद प्रदान किए गए थे।
वाकाटक वंश
सातवाहनों के पतनोपरांत चालुक्यों के उत्थान तक दक्षिण भारत में वाकाटक ही सबसे महत्वपूर्ण शक्ति थे।
विंध्यशक्ति: संभवतः विदर्भ ही इनका मूल स्थान रहा हो क्योंकि यहीं से इनके अधिकांश लेख प्राप्त हुए हैं। विंध्यशक्ति, विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राम्हण था। वाकट क्षेत्र में वाकाटक वंश का संस्थापक यही था।
प्रवरसेन: अभिलेखानुसार यही एकमात्र वाकाटक शासक था जिसने सम्राट की उपाधि ली। इसका शासन बुंदेलखण्ड से हैदराबाद तक था। इसने अनेक वैदिक यज्ञ किए, जिनमें चार अश्वमेध यज्ञ शामिल हैं। इसने अपने पुत्र गौतमी पुत्र का विवाह, नाग शासक - भवनाग की बेटी से किया। संभवतः नाग शासकों के दषाश्वमेध यज्ञों से प्रेरित हो कर इसने भी अश्वमेध यज्ञ किए हों। तथा प्रकार /अग्निष्टोम, अप्तोर्यम, वाजपेय, ज्योतिष्टोम, शडस्थक, वृहस्पति व अश्वमेध/ के यज्ञों को करवाने का श्रेय भी इसी को प्राप्त है। पुराणानुसार इसके चार पुत्र थे। किन्तु उसके दो ही पुत्रों का उल्लेख मिलता है। अभिलेखीय प्रमाणों से इसका राज्य दो भागों में बंट गया था। प्रथम /मुख्य शाखा/ भाग गौतमी पुत्र की मृत्यु होने पर पौत्र रूद्रसेन प्रथम को प्राप्त हुआ। इसकी राजधानी नंदिवर्धन /नागपुर/ थी। जबकि दूसरी शाखा का शासक प्रवरसेन के अन्य पुत्र सर्वसेन को प्राप्त हुआ। इसकी राजधानी वत्सगुल्म /वर्तमान वासिम, विदर्भ/ थी।
नंदिवर्धन के वाकाटक
रूद्रसेन प्रथम तथा उसके बेटे पृथ्वीसेन की जानकारी का अभाव है। संभवतः पृथ्वीसेन ने बुंदेलखण्ड जीत लिया था। किन्तु समुद्रगुप्त ने इस प्रदेष को अपने अधीन कर लिया। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दर्ज विजयोल्लेख में वाकाटकों का नाम नहीं है। क्योंकि तब वे गुप्तों से शक्तिशाली थे। पृथ्वीसेन के पुत्र रूद्रसेन द्वितीय ने गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती से विवाह किया था। रूद्रसेन द्वितीय के पूर्वज शैव थे किन्तु यह स्वयं अपने ससुर के प्रभाव से वैष्णव हो गया था। रूद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके अल्प व्यस्क पुत्र प्रवरसेन द्वितीय /मूल नाम - दामोदर सेन/ की संरक्षिका बन प्रभावी शासन किया। प्रवरसेन द्वितीय ने प्रवरपुर नगर की स्थापना की तथा सेतुबंध नामक महाकाव्य की रचना भी की। इसके पूर्व इसका भाई दिवाकर सेन की संरक्षिका भी प्रभादेवी थीं। दिवाकर की मृत्यु के बाद दामोदर शासक बना। अनुश्रुतियों के अनुसार नाना चंद्रगुप्त द्वितीय ने इसकी शिक्षा हेतु प्रसिद्ध कवि कालिदास को नियुक्त किया था। प्रवरसेन द्वितीय द्वारा रचित सेतुबंध महाकाव्य को रावण वहौ भी कहा जाता है। इसकी मृत्योपरांत बेटा नरेन्द्रसेन शासक बना। इसका प्रभाव कोशल/छत्तीसगढ़/, मेकल/अमरकण्टक/ तथा मालव नरेशों पर था। इस वंश का अंतिम शासक इसका बेटा पृथ्वीसेन द्वितीय था। तदुपरांत इस राज्य पर वत्सगुल्म वाकाटकों का प्रभाव स्थापित हो गया।
वत्सगुल्म के वाकाटक
सर्वसेन के पुत्र विंध्यशक्ति द्वितीय ने कुंतल नरेश को हराने का दावा किया है। इसकी चौथी पीढ़ी में सबसे उल्लेखनीय राजा हरिषेण हुआ। इस समय वाकाटक साम्राज्य का चरमोत्कर्ष था। अजन्ता की विख्यात गुफा नं0 - 16 का निर्माण हरिषेण के मंत्री वराहदेव ने ही कराया था। इसके बाद वाकाटकों के बारे में जानकारी शून्य है। छठवीं शताब्दि ईस्वी के लगभग चालुक्यों ने दक्षिण भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
यौधेय गणराज्य
पाणिनी ने इनकी गणना ‘‘ आयुधजीवी संघ ’’ में की है। प्राचीन यौधेयों के प्रतिनिधि बहावलपुर राज्य की सीमा पर स्थित जाहियावर के जोहिया राजपूत थे। यौधेयों के देवता ‘कार्तिकेय’ थे।
आर्जुनायन गणराज्य
इन्होंने अंततः समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये जयपुर - आगरा क्षेत्र के शासक थे।
मालव गणराज्य
पाणिनी ने इन्हें भी ‘ आयुधजीवी संघ ’’ /जो शस्त्र ले कर जीविका चलाती है।/ कहा है। सिकंदर के आक्रमण समय ये पंजाब में शासक थे। तथा सिकंदर के विरूद्ध क्षुद्रकों के साथ मिल कर संघ बनाया था। कालान्तर में ये पूर्वी राजपूताना में आकर बस गए। इनके सिक्के हजारों की संख्या में नागर या कार्कोट नगर /जयपुर/ से प्राप्त होते हैं। अतः नागर अथवा मालवनगर ही इनकी प्राचीन राजधानी रही होगी। इन्होंने शक क्षत्रपों से सफल युद्ध लड़े। ई0पू0 58 से प्रारंभ संवत जो बाद में विक्रम संवत कहलाया, मालव जनों से बहुत दिनों तक संबद्ध रहा। जो कि पांचवीं सदी में मालव संवत के नाम से प्रसिद्ध था। इसके पूर्व इसे कृत संवत कहा जाता था। कुछ विद्वानों के अनुसार शक क्षत्रपों को परास्त कर मालव नेता ‘‘ कृत ’’ ने इस संवत को प्रांरभ किया होगा। किन्तु कुछ विद्वान इस संवत का संस्थापक पार्थियन राजा अयको मानते हैं।
भद्रक गणराज्य
रावी-चिनाव के मध्य इनकी राजधानी स्यालकोट थी।
स्मरणीय तथ्य:
- वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन प्रथम को अपने का युधिष्ठिर भी कहा जाता था।
- वाकाटक शब्दावलि में प्रधानमंत्री को सर्वाध्यक्ष कहा गया है।
- वाकाटकों का राज्य भुक्तियों /जिला/ में विभक्त था तथा भुक्ति को राष्ट /जनपद/ में बांटा गया था। जनपद के बाद ग्राम , प्रशासन की मुख्य इकाई थे।
- भुक्ति के अधिकारी को संतक, जो वर्तमान कलेक्टर तथा चट/भट वर्तमान पुलिस अधाीक्षक की तरह कार्य करते थे।
- वाकाटकों के शासन काल में बौद्धों की महायान शाखा दक्षिण भारत लोकप्रिय रही।
- रूद्रसेन द्वितीय मात्र वैष्णव मत का अनुयायी था जबकि अन्य वाकाटक नरेश शैव मतावलम्बी थे।
- हरिविजय नामक ग्रंथ के रचनाकार राजा सर्वसेन था।
Read - इण्डो - ग्रीक शासक और शक /सीथियन/ शासक का इतिहास