गुप्त साम्राज्य (240 ई0 से 550 ई0 तक )
गुप्त कौन थे?
इस संबंध में विभिन्न इतिहासकारों में मत भिन्नता दिखाई देती है जो कि इस प्रकार है।
1. गुप्त ब्राम्हण थे ?
डॉ0 राय चौधरी एवं डॉ0 राम गोपाल गायल ने गुप्तों के धारण गोत्र के आधार पर ब्राम्हण शासक पुष्यमित्र शुंग की पटरानी धारिणी से संबद्ध किया है।
2. गुप्त क्षत्रिय थे ?
पं0 गौरी शंकर ओझा एवं डॉ0 वासुदेव शास्त्री , आर्यमुजूश्री मूल कल्प के आधार पर इन्हें ‘क्षत्रिय अग्रणी’ कहते हुए क्षत्रिय मानते हैं। परवर्ती गुप्त अभिलेखों में इन्हें चंद्र वंशी क्षत्रिय कहा गया है। तथा क्षत्रिय लिच्छिवयों से वैवाहिक संबंध के आधार पर भी इन्हें क्षत्रिय माना गया है।
3. गुप्त वैश्य थे ?
डॉ0 आयंगर तथा एलन महोदय इन्हें गुप्त शब्द , वैश्यों की विशेषता व धारण, अग्रवाल वैश्यों का विशिष्ट गोत्र है के आधार पर गुप्त शासकों को वैश्य प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।
4. गुप्त पंजाबी जाट थे ?
कौमुदी महोत्सव नाटक के आधार पर डॉ0 के0पी0जायसवाल इन्हें पंजाबी जाट मानते हैं।
वस्तुतः वर्तमान सर्वमान्य रूप से इन्हें ब्राम्हण शासक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
गुप्तों का मूल निवास स्थान कहां था ?
इस संबंध में भी मतैक्यता अभाव है, जो इस प्रकार है।
1. कौशाम्बी प्रदेष - डॉ0 के0पी0 जायसवाल /कौमुदी महोत्सव के आाधार पर /
2. मुर्शिदाबाद /पश्चिम बंगाल/ - डॉ0 डी0सी0 गांगुली /चीनी यात्री इत्सिंग के वृतांत के आधार पर/
3. वरेन्द्रि /बंगाल/ - डॉ0 आर0सी0 मजूमदार, डॉ0 एस0 चट्टोपध्याय /गांगुली मत का संशोधन/
4. मगध -
5. प्रयाग या साकेत - पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति के प्राप्ति के स्थान के आधार पर /एन0सी0ई0आर0टी0/
गुप्त वंश के इतिहास को जानने के मुख्य स्त्रोत ?
साहित्यिक स्त्रोत :
पुराण : गुप्त इतिहास को जानने का मुख्य साहित्यिक स्त्रोत वायु पुराण है। विष्णु पुराण आदि से गुप्तों के प्रारंभिक इतिहास, सीमा निर्धारण तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों की जानकारी प्राप्त होती है।
धर्मशास्त्र : धर्म, संस्कार, स्त्री दशा तथा नैतिक आदर्श का ज्ञान।
कौमुदी महोत्सव : इस नाटक की लेखिका वज्जिका है। इससे मगध की तात्कालिक स्थिति तथा गुप्तों की उत्पत्ति का ज्ञान होता है।
देवी चंद्रगुप्तम् : इस ग्रंथ के रचनाकार विशाखदत्त ने रामगुप्त की एतिहासिकता पर प्रकाश डाला है।
मुद्रा राक्षस : गुप्त वंश की स्थापना की जानकारी इस ग्रंथ से प्राप्त होती है।
मृच्छकटिकम् : गुप्तकालीन न्याय, दण्ड विधान तथा सामाजिक परिदृश्य का ज्ञान।
कामसूत्र : वेश भूषा, आभूषण तथा मनोविनोद के साधनों की जानकारी प्राप्त होती है।
आर्य मंजुश्री मूल कल्प : इस बौद्ध ग्रंथ से परवर्ती गुप्त शासकों के विषय में जानकारी मिलती है।
विदेशी यात्रियों के वृतांत :
फाह्यान : यह चंद्रगुप्त द्वितीय के समय भारत आया था। इसके विवरण से तात्कालिक सामाजिक एवं आर्थिक-धार्मिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।
सुंग -युन : इसके द्वारा हूण आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।
इत्सिंग : गुप्तों के मूल निवास स्थान की जानकारी प्राप्त होती है।
अल बरूनी : गुप्त संवत के तिथि निर्धारण में सहायक।
अभिलेखीय स्त्रोत :
गुप्त अभिलेख तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक प्रमाणिक माने जाते है।
प्रयाग प्रशस्ति : मंत्री हरिशेण ने इसमें समुद्रगुप्त की विजयों तथा उपलब्धियों का अंकन किया है। इसके अनुसार समुद्रगुप्त को चंद्रगुप्त प्रथम ने भरे दरबार में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
एरण अभिलेख : समुद्रगुप्त के दत्तादेवी से विवाह की पुष्टि इस अभिलेख से होती है।
महरौली का लौह स्तम्भ लेख : संभवतः यह मूलतः यह अम्बाला में था। इससे चंद्रगुप्त द्वितीय की बाल्हीक विजय की पुष्टि होती है।
चंद्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भ लेख : गुप्त संवत का उल्लेख करने वाला यह प्रथम अभिलेख है।
सूपिया लेख : स्कंदगुप्त के इस लेख में गुप्त वंशावलि ‘‘ घटोत्कच्छ ’’ से प्रारंभ होती है।
सिक्के :
- सर्वाधिक मुहरें वैशाली /मुजफ्फरपुर जिला/ तथा बयाना/राजस्थान/ से प्राप्त होती हैं।
गुप्त शासकः
श्रीगुप्त ( ई0 240 से ई0 280 तक )-संभवतः यह शक-मुरूण्ड या कुषाणों के अधान सामंत था तथा बाद में स्वतंत्र हो कर महाराज की उपाधि ग्रहण की। प्रभावती ने पूना ताम्र पत्र के लेख में श्रीगुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप श्रीगुप्त ने चीनी यात्रियों के लिए मृगशिखा वन /मगध/ में एक मंदिर बनवाया था। डॉ0 जायसवाल ने इसे भारशिवों के अधीन प्रयाग का सामंत कहा है। इसका समय ईस्वी 275 से ईस्वी 300 तक माना है।
घटोत्कच्छ ( ई0 280 से ई0 320 तक )-स्कंदगुप्त कालीन सूपिया के अभिलेख में इसे ही गुप्त वंश का संस्थापक बताया गया है। इसने महाराज का विरूद धारण किया था। बसाढ़/वैशाली/ से इसकी एक मुद्रा प्राप्त हुई है। एलन के अनुसार इसके राज्य में पाटलिपुत्र व इसके निकटवर्ती क्षेत्र थे।
चंद्रगुप्त प्रथम ( ई0 320 से ई0 335 तक )- 320 ईस्वी तक मगध की जनता कुषाणोंतथा क्षत्रपों से तंग आ चुकी थी। यह गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था, जिसने ‘ महाराजाधिराज ’ की उपाधि धारण की। इसने लिच्छवि राजकुमारी ‘ कुमार देवी ’ से विवाह किया तथा दहेज में वैशाली का प्रदेश भी प्राप्त किया। लिच्छिवियों के शासन में नेपाल तथा वैशाली शामिल थे। इन्हीं की सहायता से चंद्रगुप्त प्रथम ने मगध को जीता तथा पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाई। इस वैवाहिक संबंध के प्रमुख साक्ष्य ‘ चंद्रगुप्त-कुमारदेवी ’ प्रकार के सिक्के हैं। यह भी माना जाता है कि फरवरी 320 ईस्वी या दिसंबर 319 ईसवी को इसने ही ‘ गुप्त संवत ’ प्रतिपादित किया।
समुद्रगुप्त ( ई0 335 से ई0 380 तक )- चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सन्यास ग्रहण कर लिया। इसके पराक्रम का उदात्त वर्णन मंत्री हरिशेण रचित प्रयाग प्रशस्ति से प्राप्त होता है। प्रयाग प्रशस्ति के सातवें श्लोक से इसकी सामरिक विजयों का उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में अहिच्छत्र का अच्युत, पद्मावती का नागसेन तथा कोट शासक को हराया। ‘ दक्षिणापथ के युद्ध ’ में बारह राजाओं को परास्त कर अपने अधीन स्वतंत्रता प्रदान कर दी। डॉ0 राय चोधरी ने इसे ‘ धम्म विजय ’ संज्ञा प्रदान की है। जबकि प्रयाग प्रशस्ति में इसे ‘ ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति ’ कहा है। आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में नौ राजाओं को हराया। प्रयाग प्रशस्ति में इसे ‘ प्रसभोद्धरण नीति ’ कहा गया है। मध्यप्रदेश की आटविक विजय तथा प्रत्यंन्त राजतंत्र व गणतंत्रों को हराया। जबकि विदेशी शक्तियों में कुषाण, शक-मुरूण्ड तथा सिंहल/राजा मेघवर्ण/ को झुकाया। इसे सौ युद्धों का विजेता तथा अश्वमेध यज्ञ कर्त्ता कहा है।
अश्वमेध यज्ञ : सिक्कों पर अश्वमेध पराक्रमः अंकित है। यद्यपि प्रयाग प्रशस्ति में इस यज्ञ का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।
भारत का नेपोलियन : डॉ0 विसेण्ट स्मिथ ने इसके द्वारा की गई विजयों के आधार पर इसे ‘ भारत का नेपोलियन ’ कहा है।
संगीतज्ञ : सिक्कों पर वीणा बजाते अंकित है तथा प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार संगीत में यह नारद तथा तुम्बरू से भी आगे था। विद्वानों ने इसे कविराज पुकारा है।
उपाधियां : अप्रतिरथ, व्याघ्र पराक्रमांक, पराक्ररामांक/सिक्के/, धरणिबंध, धर्म प्राचीर बंध तथा विक्रमांक उपाधि धारण की।
विद्वान वसुबंधु इसका संरक्षक दरबारी था। चीनी स्त्रोतों के अनुसार लंका के राजा मेघवर्ण ने कुछ उापहार भेजकर ‘‘गया’’ में बौद्ध मंदिर बनवाने की आज्ञा प्राप्त की। समुद्रगुप्त स्वयं वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इसने छः प्रकार की मुद्राएं /1. गरूड़ मुद्रा 2. धर्नुधर मुद्रा 3. परशु मुद्रा 4. अश्वमेध मुद्रा 5. व्याघ्रहन्ता मुद्रा 6. वीणा सरण मुद्रा/ चलाईं। इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय गरूण मुद्रा थी। संभवतः गरूण इनका राज चिन्ह था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र में ही थी।
रामगुप्त ( ई0 से ई0 तक )- यह एक विवादित शासक है। गुप्त अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय था। किन्तु कुछ विद्वानों ने साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त को अगला शासक माना है। जिसके शासक बनते ही शकों ने उस पर हमला कर दिया तथा रामगुप्त बुरी तरह पराजित हुआ। अंत में एक अपमानजनक संधि के आधार पर रामगुप्त ने अपनी पत्नी धु्रव देवी को शक रनिवास में भेजना स्वीकार कर लिया किन्तु रामगुप्त के स्वाभिमानी भाई चंद्रगुप्त द्वितीय स्वयं स्त्री वेश में शक रनिवास गया तथा शक राजा ‘ रूद्रसिंह तृतीय ’ की हत्या कर शकों का उन्मूलन किया। बाद में चंद्रगुप्त द्वितीय ने रामगुप्त को मार कर धु्रव देवी से विवाह कर लिया तथा शासक बना गयज्ञं रामगुप्त के अस्तित्व के प्रमाण निम्नलिखित हैंः-
1. विशाखदत्त का देवीचंद्रगुप्त /मुख्य प्रमाण/
2. राजशेखर की काव्यमीमांसा
3. बाण भट्ट की हर्षचरित
4. मालवा से प्राप्त रामगुप्त के दस ताम्र सिक्के
5. समुद्रगुप्त का एरण अभिलेख रामगुप्त को ज्येष्ठ पुत्र बताता है।
6. अमोघवर्ष के संजान ताम्र पत्र लेख /शक संवत 795/
7. गोविन्द चतुर्थ के सागली तथा खम्भात ताम्र पत्र
अभी हाल ही में विदिशा से प्राप्त तीन में से दो अभिलेखों में महाराजाधिराज श्री रामगुप्त का उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त के शासनकाल में यह मालवा का गर्वनर था।
चंद्रगुप्त द्वितीय ( ई0 से ई0 तक )- यह समुद्रगुप्त की रानी दत्तदेवी का पुत्र था। इतिहास में इसे विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। इसने शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को परास्त कर ‘शाकारि’ तथा विक्रमादित्य’ का विरूद धारण किया। इसने स्वयं का विवाह नाग वंशी राजकुमारी कुबेरनागा से किया जिससे उत्पन्न पुत्री प्रभादेवी का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय से किया। तथा अपने पुत्र कुमारगुप्त का विवाह कदम्ब शासक काकुत्सवर्मन की पुत्री से करवाया। इसी विवाह के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने दरबारी कालिदास को दूत बनाकर कदंब वंशी कुंतल दरबार में भेजा।
इसने सप्त सैंधव पार बाल्हीक जीता तथा बंगाल आदि विजित किया।
अन्य नाम : इसके बौद्ध सेनापति आमारकार देव ने सांची अभिलेख संख्या आठ में इसे देवराज कहा है। वाकाठकों के विवरण में देवगुप्त की संज्ञा प्राप्त है। शैव मतावलम्बी चंद्रगुप्त के संधि विग्राहिक वीरसेन ने शिव मंदिर, उदयगिरि में देवश्री कहा है। जबकि महरौली के लौह स्तम्भ में इसे चन्द्र तथा धाव कहा गया है।
मुद्राएं : शकों को जीतने के उपरांत /पश्चिमोत्तर भारत/ सर्वप्रथम रजत मुद्रा/रूपक/ चलाई।
विक्रम संवतं : 58 ई0पू0 से जारी संवत को विक्रम संवत का नाम देकर संस्थपित किया।
उपाधियां : सिंह-विक्रम, विक्रमांक, विक्रमादित्य तथा परम भागवत
दरबार के नौ रत्न : 1. कालिदास 2. धन्वंतरि 3. क्षपणक 4. अमरसिंह 5. शुक्र 6. वेताल भट्ट 7. घटकर्पर 8. वराहमिहिर 9. वरूरूचि
उज्जैनं : इसने उज्जैन को साम्राज्य की दूसरी राजधानी बनाई। नौ रत्न उज्जैन दरबार की ही शोभा थे।
महरौली का लौह स्तम्भ : विभिन्न विजयों के स्मारक स्वरूप अम्बाला के विष्णुपाद पहाड़ पर एक लौहे का स्तम्भ निर्मित कराया। जिसे राजा अनंगपाल दिल्ली ले आया जो कि महरौली, कुतुबमीनार के निकट स्थित है।
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल से ही गुप्त काल ‘‘ भारत का स्वर्ण युग ’’ कहलाता है।
कुमारगुप्त ( ई0 414 से ई0 455 तक )- कुछ विद्वान इसके पूर्व गोविन्द गुप्त को शासक मानते हैं, जो कि धु्रव देवी का पुत्र था। गुप्त शासकों में सर्वाधिक 18 अभिलेख इसी शासक के मिलते हैं। इसके 623 सिक्के बयाना से प्राप्त हुए हैं। स्वर्ण सिक्कों पर इसे गुप्त कुलामल चंद्र तथा गुप्तकुल व्योम शशि कहा है। इसने अश्वमेध यज्ञ कराया तथा अश्वमेध श्री, महेन्द्रादित्य, श्री महेन्द्र, महेन्द्र सिंह आदि विरूद लिए। व्हेनसांग, कुमारगुप्त को शक्रादित्य कहता है। इस समय चीन से संबंधों में प्रगाढ़ता आई। तथा 428 ईस्वी में अपना दूत चीन भेजा था। कुमारगुप्त द्वारा नर्मदा का दक्षिणी प्रदेष जीतने की इच्छा ने वाकाटकों से संबंध में कड़वाहट की शुरूवात हुई। कुमारगुप्त ने नालंदा में विहार की स्थापना कराई, जो आगे चल कर नालंदा विश्व विद्यालय के नाम से विख्यात हुआ। स्कंदगुप्त के भितरी स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्रों के जत्थे जो हूणों से संबंध थे। ने आक्रमण किए किन्तु युवराज स्कंदगुप्त की वीरता ने विजय प्रदान कराई। स्कंदगुप्त के रणभूमि से लौटने के पूर्व ही ईस्वी सन् 455 में कुमारगुप्त ने प्राण त्याग दिए।
स्कंदगुप्त ( ई0 455 से ई0 467 तक )- इसके इतिहास का प्रमुख स्त्रोत सैदपुर तहसील से प्राप्त भितरी स्तम्भ लेख है। स्कंदगुप्त ने उत्तराधिकार युद्ध मे भाई पुरूगुप्त व घटोत्कच्छ को परास्त कर सत्ता का वरण किया। इसके शासन काल में हूणों का सशक्त हमला खुशनेबाज के नेतृत्व में हुआ। इनके विरूद्ध स्कंदगुप्त को महान सफलता प्राप्त हुई। बर्बर हूणों के आक्रमण से भारत की रक्षा करने का श्रेय स्कंदगुप्त को ही प्राप्त है। इस सफलता का गुणगान जूनागढ़ लेख तथा चंद्रगर्भपरिपृच्छ नामक ग्रन्थ में भी मिलता है। पिता के समय से ही वाकाटकों से संबंध बिगड़ गए थे। अतः हूण युद्ध में व्यस्त होने पर वाकाटक नरेश नरेन्द्र सेन ने मालवा पर कब्जा कर लिया। कहौम लेख में शक्रोपम, आर्य मंजुश्री मूल कल्प में देवराय तथा जूनागढ़ अभिलेख में श्री परिक्षिप्तवृक्षा कहा है। जबकि सिक्कों में इसकी उपाधि क्रमादित्य है। स्कंदगुप्त के प्रांतपति पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने सुदर्शन झील का पुर्ननिर्माण कराया था। इसका दूत भी ईस्वी सन् 466 में चीन गया था। यह गुप्त वंश का अंतिम महान शासक था।
पुरूगुप्त ( ई0 467 से ई0 469 तक )- स्कंदगुप्त का सौतेला भाई पुरूगुप्त /मां - अनंतदेवी/ वृद्धावस्था में शासक बना। इसने सिक्कों पर श्री विक्रम तथा प्रकाशादित्य की उपाधियां भी लीं। मन्दसौर लेख के अनुसार इसके समय इसका चाचा गोविन्दगुप्त ने मालवा में स्वतंत्र सत्ता कायम कर ली भी। इसका विरोध स्कंदगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त द्वितीय ने किया था।
नरसिंहगुप्त बालादित्य ( ई0 469 से ई0 472 तक )- यह पुरूगुप्त का बेटा था तथा इतिहास में प्रथम गुप्त शासक था जिसने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। ईस्वी सन् 472 में इसका निधन हुआ। बौद्ध विद्वान वसुबंधु को पुरूगुप्त ने इसका गुरू नियुक्त किया।
कुमारगुप्त द्वितीय ( ई0 472 से ई0 476 तक )- सिक्कों पर कर्मादित्य यह स्कंदगुप्त का पुत्र था। इसके काल में रेशम बुनकरों की एक श्रेणी ने दशपुर /मंदसौर/ स्थित सूर्य मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। यह मंदिर कुमारगुप्त प्रथम ने बनवाया था।
बुधगुप्त ( ई0 476 से ई0 495 तक )- यह चंद्रदंवी से उत्पन्न पुरूगुप्त की संतान था। यह बात नालंदा से प्राप्त मुद्रा से ज्ञात होती है। तथा शासक होने का ज्ञान सारनाथ लेख से होता है। इसकी सफलता यह थी कि बाह्य रूप से गुप्त साम्राज्य का वैभव कायम रहा। इसकी मृत्यु ईसवी सन् 495 में हुई थी।
बुधगुप्त के उत्तराधिकारी : बुधगुप्त के बाद वैन्यगुप्त ( ई0 495 से ई0 497 तक ) शासक बना फिर भानुगुप्त ने सत्ता प्राप्त की। इसने हूण नेता तोरमाण से भीषण युद्ध लड़ा। इस युद्ध को ‘‘ गुप्त शासकों का स्वतंत्रता संग्राम ’’ कहा जाता है। इस युद्ध में भानुगुप्त का सेनापति गोपराज को वीरगति प्राप्त हुई, जिसमें उसकी पत्नी सती हो जाती है। यह घटना भारत में सती प्रथा का प्रथम साक्ष्य है। इस घटना का वर्णन एरण अभिलेख/सागर/ से प्राप्त होता है। अंततः हूण, मालवा विजय में सफल हो गए। व्हेनसांग, भानुगुप्त द्वारा मिहिरकुल को वार्षिक कर देने का उल्लेख करता है। व्हेनसांग के अनुसार मिहिरकुल से तंग आ कर अगले शासक नरसिंह गुप्त द्वितीय ने इसे बंदी बना लिया तथा अपनी माता के हस्तक्षेप करने पर मुक्त किया। कुमारगुप्त तृतीय के बाद विष्णुगुप्त गुप्त शासक बना जो कि अंतिम ज्ञात गुप्त शासक है। ईस्वी सन् 570 तक गुप्त वंश का पतन हो गया।
गुप्तों के पतन का कारण :
गुप्त कालीन प्रशासन, समाज और संस्कृति
इतिहासकार बार्नेट ने लिखा है कि ‘‘ भारतीय इतिहास में गुप्त काल का प्रायः वही स्थान है, जो यूनानी इतिहास में पेरीक्लीन युग का है।’’ गुप्त साम्राज्य, मौर्यों के समान केन्द्रित तथा विशाल नहीं था। अनेक सामंत, गणराज्य, अधीनस्थ राजा आदि थे, जो गुप्तों के आधिपत्य को स्वीकार करते थे।
सामंत : ये नृप , महाराज आदि विरूद धारण करते थे व अपने राज्य में स्वतंत्रता पूर्वक शासन करते थे। सामंतों की अलग सेना होती थी। ये सामंत समय - समय पर राजस्व व उपहार देते थे तथा युद्ध के समय सैनिक सहायता भी देते थे।
गणराज्य :
अधीनस्थ राजा : दक्षिण भारत के अभियान के समय समुद्रगुप्त ने अनेक शासकों को परास्त करके उन्हें उनका राज्य वापस कर दिया तथा अपनी अधीनता में ले आया। राचोधरी ने इस विजय को रघु की धर्म विजय के रूप में निरूपित किया है।
केन्द्रीय प्रशासन :
सम्राट : शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। हालांकि मनु स्मृति में वर्धित राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत शिथिल पड़ता प्रतीत होता है। तथापि प्रशस्तिकारों ने राजा को देव तुल्य तथा धर्म का अवतार माना है। रानियों ने भी राजकीय कार्यों में भाग लिया। धर्म के अनुसार राजा वर्णाश्रम का रक्षक होता है।
मंत्रि परिषद : राजा की सहायता हेतु एक सभा/प्रयाग प्रशस्ति में राज्य सभा/ होती जिसके सदस्य सभेय कहलाते थे। सभा मे मंत्री व आमात्य होते थे। कामंदक नीतिसार में मंत्रियों तथा आमात्यों में स्पष्ट अंतर दिया गया है। मंत्रियों का मुख्य कार्य शासक को सलाह देना था पर आमात्य, प्रशासनिक अधिकारी होते थे। गुप्त कालीन प्रमुख मंत्रियों में हरिषेण/समुद्रगुप्त/ , शाव तथा षिखरस्वामी /चंद्रगुप्त द्वितीय/, पृथ्वीषेण/कुमारगुप्त/ हैं। कात्यायन स्मृति में आमात्य/नौकरशाह/ को ब्राम्हण वर्ग से ही नियुक्त करना चाहिए।
केन्द्रीय कर्मचारी : गुप्त राजाओं ने नौकरशाही संगठन को विस्तृत कर पुरानी व्यवस्था ही कायम रखी। उच्च पदाधिकारियों के पद नाम में महा शब्द को जोड़ा गया। जैसे - महा बलाधिकृत। गुप्त शासकों ने दो नए पद सृजित किए। 1. संधि विग्राहिक / विदेश मंत्री - यह युद्ध एवं शांति का मंत्री होता था। 2. कुमारामात्य / डॉ0 अल्तेकर के अनुसार यह वर्ग आधुनिक आई0ए0एस0 के समान था।/
सैन्य संगठन : सेना का सर्वोच्च अधिकारी महा बलाधिकृत /प्रधान सेनापति/ होता था। तथा महा दण्डनायक /उप सेनापति/ उसके बाद होता। महा बलाधिकृत के अधीन महा पीलूपति /गजसेना का प्रधान/, महश्वपति या भट्टाश्वपति/अश्व सेना का प्रधान/ भी होते थे। सैन्य व्यवस्था तथा रणक्षेत्र में रसद की व्यवस्था करने वाला रण भाण्डागारिक होता था। सेना की टुकड़ी को चमू कहा जाता था। सम्राट की स्वयं सेना होती थी। किन्तु महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति हेतु गुप्त शासक अधीनस्थ शासकों पर निर्भर होते थे। समुद्रगुप्त की नौ सेना का उल्लेख भी मिलता है।
पुलिस व्यवस्था : आंतरिक शांति तथा सुरक्षा का प्रमुख अधिकारी दण्डपाषिक/पुलिस अधीक्षक/ होता था। पुलिस के सिपाही को चाट, भाट या रक्षिन कहा जाता था। फाह्यान के अनुसार यह विभाग पूर्णतः सक्षम था अतः राज्य में चोरी, डकैती इत्यादि का कोई भय नहीं था। संभवतया पुलिस कार्यों की पूर्ति दण्डनायकों द्वारा भी की जाती थी।
आय-व्यय के साधन : राज्य की आय का प्रमुख स्त्रोत भूमि कर था।यह दो प्रकार का होता था।
अभिलेखों के अनुसार : 1. उपरिकर - अस्थाई कृषकों से।
2. उद्रंग - स्थाई कृषकों से।
साहित्यों के अनुसार : 1. भाग - उत्पादन का 1/6 वां भाग।
2. भोग - भेंट स्वरूप राजा को फल-फूल देना/प्रतिदिन/।
अन्य प्रमुख कर : हिरण्य - नगद भूमि कर। मेय - अनाज के रूप में भूमि कर। शुल्क - व्यापारियों से प्राप्त सीमा शुल्क। गुल्म - वनों से प्राप्त आय। प्रावेधेनिक - बॉंटों पर राजकीय मुहर लगवाने हेतु लिया जाने वाला कर। भूतोपात्त - प्रत्याय :- आंतरिक उद्योग तथा व्यापार पर कर। इस समय करों की कुल संख्या 28 थी।
भूमि : आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से भूमि के पांच प्रकार बताए गए हैंः
1. क्षेत्र - कृषि योग्य भूमि
2. वास्तु - निवास भूमि
3. चारागाह भूमि
4. सिल - बिना जोती गई भूमि
5. अप्रहत - बिना जुती जंगली भूमि
इसके अलावा विशेषताओं के आधार पर अमरकोष में बारह प्रकार की भूमि बताई गई है। तथा भूमि के माप की इकाई ‘पाटक’ होती थी।
भूमि कर संग्रहण करने वाले अधिकारी को ध्रवाधिकरण तथा भूमि आलेखों को रखने वाले अधिकारी महाक्षपटलिक तथा करणिक कहलाते थो
न्याय एवं दण्ड व्यवस्था : राजा स्वयं न्यायिक प्रधान होता था। न्यायालय जिन्हें न्यायाधिकरण कहा जाता था। ये चार प्रकार के होते थे।
1. कुल - समान परिवार के सदस्यों की समिति
2. श्रेणी -
3. पूग -
4. राजा -
नालंदा तथा वैशाली के न्यायालयों की प्राप्त मुद्राओं पर न्यायाधिकरण, धर्माधिकरण तथा धर्मशासनाधिकरण अंकित है।
प्रांतीय प्रशासन :
प्रांत : शासन की सुविधा की दृष्टि से राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त था। इनके नाम इस प्रकार थे।
देश : यह सबसे बड़ी प्रांतीय इकाई थी। यहां का प्रमुख अधिकारी गोयत्री/गोप्ना कहलाता था। सौराष्ट, सुकुली प्रमुख देष थे। ये प्रायः सीमावर्ती प्रांत होते थे।
भुक्ति : यह अन्य प्रांतीय इकाई थी। जिसका प्रधान उपरिक कहलाता था। गुप्त काल की प्रमुख भुक्तियां थीं :- पुण्डवर्धन, मगध, तिर तथा नगर आदि।
अवनी :
भोग : प्रांत का यह भाग स्वयं सम्राट द्वारा शासित होता था।
सम्राट , प्रांतीय अधिकारियों की नियुक्ति को स्वयं करता था। प्रांत पतियों की नियुक्ति पांच वर्ष के लिए की जाती थी।
जिला : प्रत्येक भुक्ति जिलों में विभाजित थी। जिसे विषय कहा जाता था। विषयों का शासन विषयपति, कुमारामात्य और आयुक्त संचालित करते थे। साधारणतया इनकी नियुक्ति प्रांतपति करता था। परंतु केन्द्रीय हस्तक्षेप को मान्यता दी जाती थी। विषय प्रमुख को सलाह देने हेतु विषय परिषद होती थी। इसमें सदस्यों को विषय महत्तर कहा जाता था। जो कि निम्न लिखित थे।
1. नगर श्रेष्ठिन :- महाजनों का प्रमुख
2. सार्थवाह :- व्यापारी समाज का प्रधान /श्रेणी प्रधान/
3. प्रथम कुलिक :- प्रधान शिल्पी
4. प्रथम कायस्थ :- प्रमुख लेखक
विषयपति की सलाहकार समिति को अधिष्ठानाधिकरण कहा जाता था। इन चार सदस्यों के अतिरिक्त तीन पुस्तपाल होते थे। जो विषय का लेखा-जोखा रखते थे।
नगर : इसका प्रधान नगरपति या पुरपाल होता था।
ग्राम : ग्रामों के समूह को पैठ कहते हैं। ग्राम के प्रधान को ग्रामिक कहते थे, जो अपनी सभा अष्टकुलाधिकरण की सहायता से शासन करता था। इस ग्राम सभा को मगध में ग्राम जनपद तथा मध्य भारत में पंच मण्डली कहा जाता था।
सामाजिक अवस्था :
वर्ण व्यवस्था : गुप्त काल में चार वर्ण थे किन्तु जातियों के व्यवसाय के संबंध में बंधन षिथिल होते जा रहे थे। वर्णों द्वारा विभिन्न व्यवसाय अपना लेने को आपद्धर्म कहा गया है। शूद्रों की दशा में काफी हद तक सुधार हुआ। नरसिंह पुराण कृषि को शूद्रों का कर्म कहता है। तो मारकण्डेय पुराण में जप-तप-व्रत शूद्र का धर्म का बताया है। अमरकोष शिल्पियों की सूची को शूद्र वर्ग में स्थान देता है। गुप्तकालीन लेखों तथा याज्ञवल्क्य स्मृति से सर्वप्रथम कायस्थ जाति का उल्लेख प्राप्त होता है।
विवाह एवं पारिवारिक जीवन : स्मृतियों में विवाह को अनिवार्य बताया गया है।
- आठों प्रकार के होते थे।
- वर्ण व्यवस्था की षिथिलता ने अनुलोम - प्रतिलोम विवाह का पोषण किया।
- बहु विवाह , विधवा विवाह मान्य था।
- संयुक्त परिवार होते थे।
स्त्री दशा : गुप्त कालीन साहित्य विवाहित स्त्री का आदर्श चित्रण प्रस्तुत करता है। किन्तु व्यवहारतः स्त्री जीवन पुरूष संरक्षण में ही था।
- स्त्री बाल विवाह प्रचलन में था। हालॉकि तब भी स्त्रियां शिक्षा प्राप्ति , वेदाध्ययन कर बड़ी आयु में भी विवाह करती थीं।
- साधारणतया एक पत्नी प्रथा थी किन्तु कुलीन वर्ग अपवाद था।
- विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त थी।
- पर्दा प्रथा का अभाव था।
- संभवतया शकों के प्रभाव से सती प्रथा के कुछेक प्रमाण प्राप्त होते हैं। ईस्वी सन् 510 का एरण अभिलेख /गोपराज/ से सती प्रथा का प्रथम साक्ष्य प्राप्त होता है।
- अमरकोष में स्त्री शिक्षक हेतु उपाध्याया शब्द का प्रयोग हुआ है। याज्ञवल्क्य स्मृति में कन्या के वेदाध्ययन तथा उपनयन संस्कार पर रोक लगाई है किन्तु विवाहोपरांत एक आदर्श पत्नी की कल्पना इस युग में की गई है। तथा पत्नी को पुत्र न होने पर पति की सम्पत्ति में पहला अधिकारी माना गया है।
वस्त्राभूषण : स्त्री - पुरूष स्वयं सुदंर बनाने का यथा शक्ति प्रयत्न करते थे। शकों के प्रभाव वश कोट, ओव्हर कोट तथा पायजामा का प्रयोग होने लगा था। तब शायद नथ का प्रयोग नहीं होता था।
खान - पान : खान-पान में पूर्णतः सात्विकता थी। बृहस्पति ने संकट काल में ब्राम्हण द्वारा शूद्र का अन्न ग्रहण करने अनुमति दी है।
शिक्षा : पाटलिपुत्र, अवन्ति, वल्लभी, पद्मावती/ग्वालियर/, अवरपुर, वत्सगुल्म, काशी, मथुरा, सांची तथा नासिक प्रमुख शिक्षा के केन्द्र थे। छठी शताब्दि तक नालंदा भी महत्वपूर्ण हो गया था।
गणिका : नगर जीवन तथा धनाढ्य वर्ग की उत्पत्ति के कारण गणिका एवं नगर वधु की प्रथा प्रचलित हो गई थी। पुराणों में देव दासियों का उल्लेख है। मेघदूतम् में उज्जैन के महाकाल मंदिर में देव दासी होने का उल्लेख है।
दास प्रथा : नारद के अनुसार 15 प्रकार के दास बताए गए हैं। गुप्त युग में दासों की दशा शोचनीय थी। दास मुक्ति के अनुष्ठान का विधान सर्व प्रथम नारद स्मृति में दिया गया है। वररूचि द्वारा सचित मनु स्मृति की टीका /ईस्वी सन् 600/ में दासों को सम्पत्ति का अधिकार दिया गया है।
अन्य सामाजिक तथ्य :
ब्राम्हण पुरूष तथा वैश्य स्त्री की संतान : अम्वष्ठ
वैश्य पुरूष तथा शूद्र स्त्री की संतान : उग्र
क्षत्रिय पुरूष तथा शूद्र स्त्री की संतान : उग्र
आर्थिक स्थिति : स्वर्ण युग की संज्ञा प्राप्त गुप्त युग की उन्नति का कारण समुन्नत कृषि, विकसित उद्योग एवं उन्नत वैदेशिक व्यापार था।
कृषि : कृषि की प्रधानता थी। बंगाल व मध्यदेश में ब्राम्हणों व मंदिरों को काफी भूमि अनुदान में दी गई थी। जो स्थिर जागीरदारी प्रथा को स्पष्ट करती है। कृषक प्रायः वर्षा पर ही आधारित होते थे। अतः बृहत्संहिता/वराहमिहिर/ में वर्षा की संभावना या अभाव के विषय पर काफी विचार विमर्श है।
उद्योग : गुप्त काल में वस्त्र उद्योग अति उन्नत अवस्था में था। बनारस - रेशमी वस्त्र तथा मथुरा - सूती वस्त्रों हेतु विख्यात था। कुषाण एवं शक प्रभाव ने सिले वस्त्रों में अभिरूचि पैदा की। वृहत्संहिता में बीस तरह के रत्नों का उल्लेख मिलता है।
व्यापार : पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह भड़ौच, कल्याण, चोल तथा काम्बे थे। इस काल में भारत के चीन से व्यापार में विशेष वृद्धि हुई। कॉसमॉस के अनुसार भारत - चीन व्यापार में प्रमुख मध्यस्थ श्रीलंका था। क्योंकि फाह्यान ने अपनी वापसी यात्रा ताम्रलिप्ती के बंदरगाह से भारतीय पोत में सिंहल द्वीप/लंका/ हो कर जावा तथा चीन तक की। व्हेनसांग , सौराष्ट के लोगों की जीविका का प्रधान समुद्र को कहता है। भारत - चीन व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। विदेशी व्यापार में सातवाहन व कुषाण काल की तुलना में कमी आई। गोथ, हूण आदि हमलावरों ने रोमन साम्राज्य को तहस-नहस कर डाला तथा वहां के नवीन शासकों ने भारतीय वस्तुओं के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। जिससे भारतीय व्यापार को झटका लगा किन्तु बाद में बाजैण्टाइन साम्राज्य से भारतीय पक्ष में व्यापार शुरू हो गया। दक्षिण - पूर्व एशिया से व्यापार करने गुप्तों का प्रमुख पत्तन ताम्रलिप्ती था।
- चंद्रगुप्त द्वितीय ने पहली बार चांदी के सिक्के तथा कुमार गुप्त ने ताम्र सिक्के चलवाए।
धार्मिक दशा : नए देवता, नया विश्वास तथा इन्द्र जैसे वैदिक देवताओं का स्थान ब्रम्हा, विष्णु , महेश ने लिया। इन्हीं देवताओं के मंदिर और मूर्तियां बनाई जाने लगीं।
हिन्दू धर्म : हिन्दू या वैदिक धर्म के पुनरोत्थान की प्रक्रिया इस समय चरम सीमा पर थी। मूर्ति, उपासना का केन्द्र बन गई। राजा के अतिरिक्त वैदिक क्रियाओं की पूर्ति के साधन जन साधारण के पास नहीं थे। अतः यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया था। भक्ति के सिद्धांत को प्रोत्साहन मिला जिससे पुरोहितों की प्रतिष्ठा में हास हुआ। गुप्त युग में हिन्दु धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय हुए। 1. वैष्णव 2. शैव
वैष्णव धर्म : यह भागवत धर्म ही है जिसमें विष्णु तथा उसके अवतारों की पूजा होती है। गुप्त शासक प्रायः वैष्णव धर्मानुयायी ही थे। परम भागवत की उपाधि इन शासकों को अति प्रिय थी। गुप्तों का राज चिन्ह भी गरूड़ था। इस धर्म में प्रमुख परिवर्तन भी हुए जैसे : अवतारवाद सिद्धांत ने विशाल रूप धारण कर लिया।दूसरा भागवत धर्म संस्थापक वासुदेव कृष्ण के जीवन में नए अध्याय समाविष्ट हुए। 1. बाल कृष्ण की ग्वाल टोली 2. रास लीला। गुप्तों के समय यह धर्म दक्षिण - पूर्व एशिया, हिन्द चीन, कम्बोडिया, मलाया तथा इण्डोनेशिया तक फैला।
दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म : दक्षिण भारत के वैष्णव धर्मानुयायी अलवार कहलाते थे। इनके तमिल गीतों में गहरी अनुभूति तथा सदाचार के कारण इन्हें वैष्णव वेद भी कहा जाता है। इन गीतों के रचयिता भी दक्षिण भारत में देव तुल्य पूज्य हैं। अलवारों में स्त्री-पुरूष दोनों ही हैं। परंपरानुसार अनवार संतों की संख्या बारह मानी जाती है। उनकी रचनाओं का संग्रह - नालायिर प्रबंधम् नाम से विख्यात हैं। नम्मा अलवार जो सबसे बड़े अलवार संत थे। इनकी चार कविताएं भी नालायिर प्रबंधम् में हैं।जो अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। श्री वैष्णव उन्हें चारों वेदों का तमिल संस्करण मानते हैं। अंतिम अलवार तिरूमंगै की छः कविताएं षड् वेदांग कहलाती हैं। एक अन्य अलवार संत जो कि राजा थे कुलशेखर ने पेरूमाल-तिरूपोलि एवं मुकुंदमाला की रचना की। जिसमें गीत सौंदर्य के कारण मुकुंदमाला की तुलना गीत गोविंद से भी की जाती है।
गुप्त युग में वैष्णव धर्म को शबर स्वामी तथा कुमारिल भट्ट के नेतृत्व में मीमांसकों नें यज्ञों को प्रधान बता कर अक्कर देने की कोशिष की । तो आदि शंकराचार्य का अद्वैतवाद भी सामने आया। किन्तु रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद ने अद्वैतवाद का उत्तर दे वैष्णव धर्म को नया स्वरूप प्रदान किया।
शैव धर्म : शिव के उपासक शैव कहलाए। गुप्त काल में शैव धर्म के अनेक संप्रदाय हुए। वामन पुराण इनके संख्या चार बताई है।
1. शैव सम्प्रदाय : यह सुगम तथा नरम सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। संध्या पूजा, जप-तप-व्रत एवं यज्ञ तथा विभिन्न प्रकार की लिंगोपासना पर बल देता है।
2. पाशुपत सम्प्रदाय : सत्य की प्राप्ति एवं ज्ञान की परम कक्षा हेतु ये निम्न लिखित कार्य करते थे। 1. शरीर पर भस्म लेपन 2. तीव्र स्वर में ‘‘ हा - हा ’’ का नाद 3. बैल के समान हुंकार भरना 4. अपंगों के समान चलना 5. भर्त्सना युक्त कार्य करना।
3. कापालिक सम्प्रदाय : इनके इष्ट देव शंकर के अवतार भैरव बाबा होते हैं।
4. कालामुख सम्प्रदाय : यह कापालिक वर्ग का ही अंग है। दोनों खाद्य तथा अखाद्य पदार्थों में अंतर नहीं करते हैं।
दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय : भक्ति सम्प्रदाय के रूप में ईस्वी सन् 500 से इसका प्रसार दक्षिण भारत में हुआ। दक्षिण भारत में शैव संत नयनार कहलाते, जिनकी सामान्य संख्या 63 बताई जाती है। तिरूमूलर, सम्बन्दर, अप्पार, सुंदरर , मणिवागर का स्थान प्रमुख नयनारों में है। इनके भजनों का संग्रह तिरूमुरै के रूप में है। पेरियपुराण नामक तमिल ग्रंथ में 63 नयनारों का चरित्र चित्रण है। वैसे - शैव धार्मिक साहित्य को भी ‘‘ आगम ’’ कहा गया है। दक्षिण भारत में कलचुरि नरेश विज्जल के प्रधानमंत्री बसव द्वारा स्थापित वीरशैव लिंगायत संप्रदाय का भी प्रभाव था। इसकी प्रमुख विशेषता ब्राम्हण विरोधी भावना थी। कालिदास स्वयं शैव अनुयायी था।
बौद्ध धर्म : यद्वपि गुप्त शासक ब्राम्हण धर्म के अनुयायी थे तथापि बौद्ध धर्म के प्रति सहिष्णु रहे। चिरोत्सन्न अश्वमेध यज्ञ कर्ता समुद्रगुप्त ने सिंहल राजा मेघवर्ण को बोध गया में विहार बनाने की अनुमति प्रदान की। चंद्रगुप्त द्वितीय का सेनापति आमारकादव बौद्ध था। चंद्रगुप्त द्वितीय ने काकनादबार/सांची/ के महाविहार को 25 दीनार दान में दी थीं। वैन्यगुप्त जो शैव था, ने वैवर्तिक संघ नामक महायान शाखा को दान दिया।
गुप्त काल में आर्य देव, असंग /क्रमशः चतुश्शतक एवं महायान सूत्रालंकार के लेखक/ वसुबंधु, दिक्नाग तथा श्रीलंका का विद्वान बुद्धघोष जैसे महायानी विद्वान थे। इस समय चीन तथा दक्षिण-पूर्व एषिया में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। किन्तु पांचवीं सदी के अंत में हूणों ने बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया तथा बौद्ध भिक्षुओं को कत्ल कर इस धम्र को विनाशकारी आघात पहुचाया।
जैन धर्म : इस जैन धर्म भी प्रगति पर था। ईस्वी सन् 313 में क्रमशः मथुरा व वल्लभी में दो तथा पुनः ईसवी सन् 453 को वल्लभी, श्वेताम्बर तथा कर्नाटक में मैसूर, कांची एवं पुण्डवर्धन में दिगम्बर जैनों का केन्द्र था।
साहित्य : गुप्तकाल में धर्म तथा धर्म निरपेक्ष दोनों प्रकार के साहित्य लिखे गए। शासकों ने संस्कृत भाषा को राजभाषा बनाया।
धार्मिक साहित्य : पुराणों का वर्तमान स्वरूप इसी समय संकलित हुआ। गुप्त काल में आदि ग्रंथ रामायण तथा महाभारत को अंतिम रूप चौा सदी ईस्वी में बना। नारद, कात्यायन, पाराशर, वृहस्पति, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियां लिखीं गईं। बौद्धों के भी अनेक ग्रंथ रचे गए।
धर्म निरपेक्ष साहित्य : इस क्षेत्र में कालिदास /भारत का शेक्सपियर/ नाम सर्वोपरि है। ये पांचवी शताब्दि ईस्वी के माने जाते हैं। इन्होंने संस्कृत में सात ग्रंथ लिखे। इनमें अभिज्ञान शांकुतलम् प्रथम भारतीय रचना है, जिसका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ। तथा दूसरा ग्रंथ भगवद गीता है। संस्कृत के सारे नाटक सुखान्त हैं। संस्कृत नाटकों में स्त्री तथा शूद्र प्राकृत तथा भद्रजन संस्कृत में बोलते थे। ‘‘ ऋतु संहार ’’ कालिदास की प्रथम रचना है।
काव्य : हरिषेण रचित प्रयाग प्रशस्ति चंपू काव्य में है। जो कालिदास तथा दण्डिन की बराबरी करते नजर आते हैं।
नाटक : कालिदास के अलावा भास के नाटक तेरह नाटकों का पता सन् 1910 ईस्वी में चला था। कालिदास ने इनके नाटकों का वर्णन पूरे आदर के साथ किया है। शूद्रक का मृच्छकटिकम् /मिट्टी की खिलौना गाड़ी/ , दण्डिन ने दशकुमार चरित लिखा है।
कथा-कहानी : विष्णु शर्मा का पंचतंत्र जिसका अनुवाद अरबी, पहलवी तथा सीरियाई भाषा में बहुत पहले हो गया था। गुप्त काल में यह यूरोप तक पहुंच गई।
वैज्ञानिक साहित्य : आर्य भट्टीयम्, गणित तथा ज्योतिष ग्रंथ है। पशु चिकित्सा ग्रंथ ‘‘ हस्त्यायुर्वेद ’’ को पालकाप्य ने लिखा। दशगीतिका/आर्यभट्ट/, ब्रम्हसिद्धांत/ब्रम्हगुप्त/ प्रमुख हैं।
चिकित्सा साहित्य : सुश्रुत संहिता /सुश्रुत/
वास्तु साहित्य : मयमत तथा मानसार प्रमुख वास्तु ग्रंथ हैं।
कला का विकास : इस समय मथुरा, वाराणसी एवं पटना प्रमुख कला केन्द्र थे।
वास्तुकला : प्रसिद्ध वास्तु लेखक पर्सी ब्राउन गुप्त कालीन मंदिरों को इस युग की महान वास्तु कला निरूपित करते हैं।
राज प्रासाद : वर्तमान में नष्ट हो गए राज प्रासादों की जानाकारी साहित्य एवं चित्रों से ही प्राप्त हैं। अमरावती और नागार्जुनीकोण्डा में बहुमंजिला महल थे। वत्सभट्टि की मंदसौर प्रषस्ति में कुमारगुप्त के महल का भवय वर्णन है।
स्तम्भ : चंद्रगुप्त द्वितीय ने लौह स्तम्भ, महरौली को विष्णु ध्वज के रूप में बनवाया था। पत्थरों के प्रस्तर स्तम्भ में समुद्रगुप्त - इलाहाबाद, चंद्रगुप्त द्वितीय - मथुरा, कुमारगुप्त प्रथम - विलसद, स्कंदगुप्त - कहौम व भितरी, बुधगुप्त - इलाहाबाद तथा भानुगुप्त - एरण प्रमुख हैं। मौर्य कालीन स्तम्भ गोल, चिकने एवं पॉलिशड थे, परन्तु गुप्तकालीन स्तम्भ अनेक कोण वाले हैं।
स्तूप : गुप्तकालीन स्तूपों में प्रमुख 128 फुट उंचा तथा 93 फुट व्यास का धमेख स्तूप है। इस स्तूप की विशेषताएं :- ईंटों से निर्मित, चबुतरे पर न बन कर सीधे धरातल पर बना है। इसका गुंबद गोल न हो कर दण्डाकार है। यह स्तूप निर्माण के चरम रूप का द्योतक है। गुप्त कालीन एक अन्य स्तूप राजगृह में भी है। जिसे तरासंध की बैठक का स्तूप कहते हैं।
विहार : गुप्त कालीन प्रमुख विहार सारनाथ, नालंदा एवं काकनादबोट/सांची/ में थे।
लयण/गुहाएं/ :
- उदयगिरि/ग्वालियर/ गुहा : ब्राम्हण गुहा मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसे चंद्रगुप्त द्वितीय के समय वीरसेन साव ने बनवाया था। यह उदयगिरि का प्रमुख गुहा मंदिर है। चंद्र गुप्त द्वितीय के सामंत सनकानिक ने भी यहां गुहा बनवाई थी।
- अजंता की गुहा : गुहा नं0 - 16,17 एवं 19 गुप्त कालीन है।
- बाघ की गुहा/ग्वालियर/ : यह गुहा भी गुप्त कालीन है।
मंदिर : भारत में मंदिर निर्माण प्रारंभ करने का श्रेय गुप्त शासकों जाता है। मंदिर को ब्रम्हाण्ड का स्वरूप माना जाता हैं।
- दशावतार मंदिर /देवगढ़/ : यह भारत में शिखर निर्माण का प्रथम साक्ष्य है। इसमें लोहे का भी प्रयोग हुआ है। शिखर निर्माण शैली को नागर या उत्तर शैली कहा जाता है।
गुप्त कालीन मंदिरों की प्रमुख विषेषताएं निम्न लिखित हैं :-
1. उंचे चबुतरे पर निर्मित
2. चबुतरे के चारों ओर सीढ़ी का निर्माण
3. प्रारंभिक मंदिरों की छत सपाट होती थी किन्तु बाद में ये शिखर युक्त होने लगी।
पर्सी ब्राउन ने दशावतार मंदिर की प्रशंसा मुक्त कण्ठ से की है।
वास्तुकला : भरहुत, सांची तथा मथुरा शैलियां एन्द्रिय पार्थिवता तथा अमरावती शैली शक्ति एवं तीव्र गति तो गुप्त कालीन मूर्ति कला निर्मलता, सुरक्षा एवं निष्चितता की भावना प्रकट करती है। इस समय मूर्ति कला विदेशी प्रभाव से मुक्त हो कर विशुद्ध भारतीय शैली में प्रवेश कर गई। इस समय मूर्ति कला का प्रमुख केन्द्र सारनाथ था।
बौद्ध मूर्तियां :
1. सारनाथ की धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा की बुद्ध मूर्ति सर्वश्रेष्ठ है।
2. सांची की मुख विहीन बोधिसत्व की प्रतिमा।
3. सुल्तानपुर की ताम्र बुद्ध मूर्ति।
शैव मूर्तियां :
1. खोह से प्राप्त एक मुखी मूर्ति।
2. करमदण्डा से प्राप्त चतुष्मुखी मूर्ति।
वैष्णव मूर्तियां :
उदयगिरि के गुहा द्वार में उत्कीर्ण वराह प्रतिमा गुप्त काल की सर्वाधिक प्रभावशाली मूर्ति है।
जैन मूर्तियां :
कुमारगुप्त कालीन महावीर की मूर्ति।
मृण्मयी मूर्तियां :
लोक कला एवं जीवन को दर्शाती हैं।
गुप्त कालीन शिल्प कला का जन्म मथुरा शैली के प्रतिमानों पर आधारित था।
चित्रकला :
अजंता की चित्रकला : अजंता की प्रचीनतम् चित्रकारी लगभग ई0पू0 दसरी सदी की मानी जाती है। यहां पर सभी 29 गुहाओं में चित्र थे किन्तु वर्तमान में कुल 6 गुहाओं में ही चित्र उपलब्ध हैं। गुहाओं की गणना पूर्व से पश्चिम की ओर की गई है। गुफा क्रमांक 16,17 एवं 19 की चित्रकारी गुप्त कालीन है। तत्कालीन समय में अजंता वाकाटक साम्राज्य का अंग था। इन चित्रों के तीन विषय हैंः- 1. अलंकरण 2. चित्रण 3. वर्णन । ये चित्र फ्रेस्को व टेम्परा विधि से बनाए गए हैं। अजंता के चित्रों का ग्रिफिथ महोदय ने तेरह वर्षों तक गूढ़ अध्ययन किया था।
गुफा क्रमांक 16 : इसमें ‘ सुजाता की कहानी ’ ‘ गायों का चित्रण ’ एवं ‘ बुद्ध के वैराग्य ’ का चित्रण है।
गुफा क्रमांक 17 : इसे ‘‘ अजंता की चित्रशाला ’’ कहा जाता है।
बाघ की चित्रकला : इसकी खोज सन् 1818 में डेजर फील्ड ने की। इसके चित्र लगभग छठवीं सदी या सातवीं सदी के पूर्वाद्ध के है। यहां की प्रशंसा ‘ मार्शल ’ ने की है।
अजंता की गुफा क्रमांक 16 एवं 17 का निर्माण एविं चत्रकारी वाकाटकों ने करवाई थी।
स्मरणीय तथ्य :
- समुद्रगुप्त द्वारा सौराष्ट विजय से ही राज्य में सिंह का शिकार सुलभ हुआ।
- एक मात्र कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों पर ही कार्तिकेय का अंकन है। /मयूर शैली/
- पुरूगुप्त ने वसुबंधु को अपने पुत्रों कर गुरू नियुक्त किया।
- भारत में निरंकुश शासन परंपरा का प्रारंभ हूण हमलों का प्रभाव माना जाता है।
- तुर्की लेखक हूणों को हेफेलाइट कहते हैं।
- प्रथम हुण आक्रमण के समय गुप्त शासक था -
- इतिहासकार ‘ दुबरियोयिल ’ के अनुसार कांचि के विष्णुगोप ने दक्षिण के बारह राजाओं का संघ बना कर समुद्रगुप्त को वापस लौटने पर विवश कर दिया था।
- चंद्रगुप्त द्वितीय की पश्चिम क्षत्रपों पर विजय होने से पश्चिमी तट का प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह भृगुकच्छ प्राप्त हुआ।
- हरिषेण, समुद्रगुप्त के समय सभी प्रमुख पदों पर रहा।
- गुप्तकालीन पद नाम -
- सद्दलपुत्त नामक कुंभकार का व्यापर अंर्तराष्टीय था।
- अनाज विक्रेता श्रेणि ने बौद्ध गुफा दान दी थी।
- विदिशा की हस्त दंत शिल्पी श्रेणी ने सांची स्तूप की सजावट की।
- बुनकर श्रेणी द्वारा मंदिर को प्रदत्त विशाल राशि से मंदिर की व्यवस्था चलती थी।
- बरबारी कम - सिंधु मुहाने का बंदरगाह था।
- पेडोक या अरिकामेडू या पाण्डिचेरी एक ही चीज है।
- व्हाइट हार्स मोना स्टरी - चीन स्थित लो - पांग की इमारत जहां 65 ईसवी में प्रथम बौद्ध प्रचारक संघ ठहरा था। /241 वर्ष का अंतर बताया/
- कौमुदी महोत्सव की लेखिका ‘ विज्जिका ’ ने इस नाटक में चण्डसेन को कास्त्गर कहा है। इसी चण्डसेन को चंद्रगुप्त प्रथम समझा गया है।
- नेपाली इतिहास से गुप्त शूद्र थे।
- इत्सिंग के अनुसार - चिलिकिनो/श्रीगुप्त/ ने मृगशिखा वन में मंदिर बनवाया था।
- विवाह प्रकार के सिक्के - चंद्रगुप्त प्रथम ने चलवाए।
- काव्यालंकार सूत्रवृत्ति /वामन/ में समुद्रगुप्त को चंद्रप्रकाश कहा है।
- काव्यमीमांसा/राजशेखर/ में चंद्रगुप्त द्वितीय को ‘ साहसांक ’ कहा गया है।
- समुद्रगुप्त द्वारा पराजित ‘‘ काक ’’ गणराज्य / संकानिकों के पडौसी/ ने काकनाद नगर/सांची/ की स्थापना की।
- सर्वाधिक समृद्धि कुमार गुप्त के शासन काल में रही।
- शुल्क/चुंगीकर/ वसूल कर्ता : शौल्किक
- बसाढ़/वैशाली/ में मुहरों का भण्डार खोजा - डॉ0 ब्लाख ने।
- योगाचार दर्शन/बौ0/ का अत्याधिक विकास गुप्त काल में ही हुआ।
- कुंतलेश्वर दौत्यम्/नाटक/ तथा ऐहोल के लेख कालिदास को गुप्त युगीन प्रमाणित करते हैं।
- गुप्त युगीन एक मात्र ग्रंथ जिस पर रचनाकार का नाम लिखा है - आर्य भट्टीयम्
- गुप्तकाल तथा कथित हिन्दु पुर्नजागरण न तो पुर्नजागरण था न ही हिन्दु पर्नजागरण ‘- डी0एन0ओझा
- आर्यमंजू श्री मूल कल्प के अनुसार समुद्र गुप्त के बाद ‘‘ भिशा ’’ ने शासन किया।
- बौद्ध विद्वान वसुबंधु को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।
- मृच्छकटिकम् की वसंतसेना उज्जैन की निवासी थी।
- फाह्यान का मूल नाम कुड्. था।
- समुद्रगुप्त ने शकों तथा श्रीलंका से कर वसूला था।
- गुप्तकाल में दान देने हेतु प्रसिद्ध संघ - रेशम बुनकर संघ/पश्चिम भारत/
- प्रमुख गुप्त कालीन उद्योग - वस्त्र उद्योग
- पाई का मान आर्यभट्ट ने निकाला।
- कालिदास की प्रथम रचना - ऋतु संहार है।
- मनु स्मृति/शुग काल/ को छोड़ कर समस्त स्मृतियां गुप्त कालीन हैं।