दोस्तों हमने भारत के पौराणिक इतिहास के विषय में ढेर सारे लेख लिखे है ऐसे आज हम आपको उत्तर भारत के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी इस आर्टिकल में देंगे आप ये आर्टिकल ध्यान से पढ़ें क्यूंकि ये आपको स्कूल की परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी सिद्ध होने वाला है।
उत्तर भारत का इतिहास ( ई0 650 से ई0 800 तक )
हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरांत उसका मंत्री भी शासन करने में असफल रहा। चीनी विवरण से ज्ञात होता है कि भास्करवर्मा /कामरूप/ ने चीनी सेना को सहयोग प्रदान किया था।
कामरूप
सामान्यतया प्राचीन भारत के इतिहास में यह पृथक ही रहा है। यह मौर्य साम्राज्य से बाहर था जो अंत तक ब्राम्हण धर्म पर अडिग रहा। यहां पर एतिहासिक वंश की स्थापना पुष्यवर्मन् ने आरंभिक चौथी सदी ईस्वी में की थी। इस वंश के प्रारंभिक छः राजा गुप्तों के अधीनस्थ थे। संभवतः सातवें शासक ने जो दो अश्वमेध यज्ञ कर्ता था , ने अधीनता त्याग दी। छठवीं सदी के मध्य अगला शासक भूतिवर्मा बना। इसके उत्तराधिकारी सुस्थित वर्मा को परवर्ती गुप्त महासेन गुप्त ने हराया था। सुस्थितवर्मन् का पुत्र भास्करवर्मा 600 ई0 के लगभग शासक बना। व्हेनसांग तथा बाणभट्ट इसे कुमार कहते हैं।इसने शशांक के विरूद्ध हर्ष को सहयोग दिया था। यह कन्नौज व प्रयाग की सभा में भी उपस्थित हुआ था।हर्ष की मृत्यु के बाद उसके सत्ता हड़पू मंत्री अर्जुन के विरूद्ध वांग-व्हेन-त्से को सैन्य सहयोग दिया। अपने शत्रु शशांक की राजधानी /कर्ण सुवर्ण/ में अपना विजयी स्कंधावार स्थापित किया। यह निःसंतान था। 650 ईव में मृत्यु के बाद शाल स्तम्भ नामक बर्बर राजवंश कामरूप में स्थापित हुआ। भास्कर ब्राम्हण धर्म का अनुरागी था।
यशोवर्मन्
इसे उत्तर भारत का धूमकेतु भी कहा जा सकता है। यह आठवीं सदी के आरंभ में कन्नौज पर सत्तारूढ़ मिलता है। मालती माधव, महावीर चरित्र तथा उत्तर रामचरित के रचनाकार भवभूति इसका दरबारी था। कालिदास से लेकर संस्कृत कोकिल भवभूति तक का समय नाट्य साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। यशोवर्मन् की विजय गाथा उसके संरक्षित वाक्पति राज द्वारा प्राकृत भाषा में रचित गौड़वहो/गौड़वध/ से प्राप्त होती है। संभवतः तत्कालीन गौड़ नरेश, परवर्ती गुप्त जीवितगुप्त द्वितीय था। 731 ई0 को अपने मंत्री बुद्धसेन /पू-टा-सिन/ को चीनी दरबार में भेजा। कश्मीर के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ ने 740 ई0 से 750 ई0 के लगभग कन्नौज पर आक्रमण करके यशोवर्मन् को मार डाला। उसके तीनों उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुए।
कश्मीर का राज्य
गुप्तकाल में कश्मीर स्वतंत्र था। यहां के इतिहास का ज्ञान राजतंरंगिणी द्वारा सातवीं सदी के पूर्वार्द्ध से ज्ञात होता है। जब दुर्लभवर्मन् वहां के मृत शासक की बेटी से विवाह कर नाग - कार्कोट वंश की स्थापना करता है। इसी समय व्हेनसांग कश्मीर आया था। 632 ई0 में दुर्लभवर्मन की मृत्यु हो गई। तब इसका पुत्र दुर्लभक, प्रतापादित्य की उपाधि लेकर शासक बना। इसने प्रतापपुर नगर की स्थापना की। 682 ई0 में दुर्लभक की मृत्यु के बाद चंद्रापीड़ शासक बना। 720 ई0 तक इसे चीनी शासक ने भी अपना सम्राट मान लिया। कल्हण के अनुसार अपनी उदारता एवं दानशीलता के लिए प्रसिद्ध था। इसने अरब आक्रमण कारियों को परास्त किया। अंत में भाई तारापीड़ के हाथों मरवा दिया गया। कल्हण, तारापीड़ को क्रूर व बर्बर शासक कहता है। तारापीड़ के बाद इस वंश का सबसे यशस्वी शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ राजा बना। यह 724 ई0 को गद्दी पर बैठा। इसने कम्बोजों, तुरूष्कों/अरबी मुसलमान/ तथा तिब्बत को हराया। इसकी प्रमुख विजय यषोवर्मन /कन्नौज/ पर थी। इसके जीवन पर दो कलंक भी हैं। 1. शराब के नशे में प्रवरपुर नगर में आग लगवाना। 2. भगवान की कसम खा कर रक्षा का वचन देने पर भी गौड़ नरेश की हत्या करवाना। 760 ई0 को इसकी मृत्यु हो गई तथा विनयादित्य राजा बना। फिर जयापीड़-विनयादित्य किन्तु नौवीं सदी तक यहां उत्पल वंश का शासन हो गया।