राजपूत युग : त्रिपक्षीय संघर्ष ( ई0 800 से ई0 1200 तक ) | Rajput yug tripakshiya sangharsh itihas

आज के इस लेख में हम राजपूत युग त्रिपक्षीय संघर्ष के बारे में चर्चा करने वाले है जिसमें हम त्रिपक्षीय संघर्ष के विभिन्न चरण, राजपूतों की उत्पत्ति, विभिन्न राजपूत वंश, राष्ट्रकूट राजवंश, पाल राजवंश बंगाल, कन्नौज और गहड़वाल राजवंश, सेन राजवंश बंगाल, पृथ्वीराज द्वितीय, चौहानों की अन्य शाखाएं, गुजरात के सोलंकी/चौलुक्य, कर्ण मालवा विजेता, कलचुरि राजवंश, दिल्ली के तोमर वंश, मेवाड़ के गुहिल आदि विषयों पर प्रकाश डालेंगे। 

Rajput yug tripakshiya sangharsh itihas
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राजपूत युग : त्रिपक्षीय संघर्ष ( ई0 800 से ई0 1200 तक )


हर्षवर्धन /ई0 606 से ई0 647/ के समय से ही कन्नौज उत्तर भारत का प्रभुत्वशाली नगर था। गंगा तट पर स्थित होने के कारण नदी मार्ग से उत्तर भारत एवं पूर्वी भारत के व्यापार की महत्वपूर्ण कड़ी था तथा गंगा-जमुना के दोआब में होने के कारण यह भारत सर्वाधिक उपजाउ प्रदेश था। वैसे अरबों के आक्रमण के बाद भारत में तीन शक्तियां प्रकाश में आईं। 1. प्रतिहार 2. पाल 3. राष्ट्रकूट। सामरिक तथा राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कन्नौज को जीतने के लिए हुए इन तीनों के संघर्ष को त्रिपक्षीय संघर्ष का नाम दिया गया है। आठवीं सदी के प्रारंभ में कन्नौज पर नितांत निर्बल आयुध वंश का शासन था।

त्रिपक्षीय संघर्ष के विभिन्न चरणः


प्रथम चरण : त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रारंभ प्रतिहार शासक वत्सराज ने किया। इसने कन्नौज के तत्कालीन शासक इन्द्रायुध/ई0 783/ को परास्त कर बंगाल के शासक धर्मपाल को भी हराया किन्तु वत्सराज जब लौट रहा था तो विंध्य को पार कर राष्ट्रकूट ध्रुव ने वत्सराज को पराजित कर दिया। तब वत्सराज ने अपनी जान बचाने मारवाड़ के मरुस्थल में शरण ली। तभी राष्ट्रकूट राज में भावी नरेश को लेकर गोविंद तृतीय एवं स्तंभ में संघर्ष छिड़ गया। अतः ध्रुव की यह सफलता अल्पकालिक ही रही।

द्वितीय चरण : वत्सराज की पराजय तथा 
राष्ट्रकूट के आंतरिक संघर्ष का लाभ धर्मपाल ने उठाया और धार्मपाल ने इन्द्रायुध को रास्त कर चक्रायुधा को अपना कठपुतली शासक बना दिया। इसके बाद उत्तर भारत पर बंगाल के पाल वंश का प्रभुत्व हो गया।

तृतीय चरण : चक्रायुध का शासक बनना प्रतिहारों को चुनौती थी अतः वत्सराज/ई0 783 से ई0 795/ के शासक पुत्र नागभट्ट द्वितीय/ ई0 795 से ई0 815/ ने युद्ध में चक्रायुद्ध को परास्त कर कन्नौज जीत लिया तब इसे अपने प्रति चुनौती मान कर धार्मपाल ने युद्ध की घोषणा कर दी। किन्तु नागभट्ट द्वितीय ने मुंगेर/बिहार/ के निकट युद्ध में धर्मपाल को हरा दिया। परन्तु नागभट्ट द्वितीय स्वयं राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय /ई0 793 से ई0 814/ से हार गया।

चतुर्थ चरण : गोविंद, दक्षिण के बारह राजाओं के संघ तथा गंग नरेश के विरोध के बावजूद शासक बना था। संभवतः गोविंद को नागभट्ट के विरूद्ध धर्मपाल एवं चक्रायुध ने आमंत्रित किया था। गोविंद तृतीय ने नागभट्ट द्वितीय द्वारा स्थापित इन्द्रायुध को हटा का पुनः चक्रायुध को अपने अधीन सत्ता सौंप दीं। धर्मपाल ने भी राष्ट्रकूट प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। गोविंद उत्तर भारत का प्रदेश अपने भाई इन्द्रराज को सौंप कर दक्षिण चला गया। यहां पर गोविंद तृतीय का वापस लौटना ही महत्व का विषय है क्यूंकि पुनः भावी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का वहां विरोध हो रहा था।

पंचम चरण : सन 815 ई0 में पिता की मृत्यु के बाद देवपाल/ई0 815 से ई0 850/ एक योग्य शासक बना। इसने राष्ट्रकूट के आंतरिक संघर्ष तथा नागभट्ट द्वितीय के कमजोर उत्तराधिकारी रामभद्र की शक्तिहीनता का लाभ लिया तथा कन्नौज से चक्रायुध को हरा कर अपने अधीन किया। देवपाल चालीस वर्षों तक सफल शासक रहा।

अंतिम चरण : देवपाल के दुर्बल उत्तराधिकारी तथा राष्ट्रकूट की नीरसता लाभ अब प्रतिहार शासक मिहिर भोज ने लिया। अंततः प्रतिहार सफल हुए तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

राजपूतों की उत्पत्ति


राजपूत शब्द संस्कृत के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंष है। संभवतः यह शब्द राज परिवारों के सदस्यों के लिए प्रयोग किया जाता था। जो कि हर्षवर्धन के बाद एक जाति के रूप में प्रयुक्त होने लगा। राजपूतों के विषय में एक प्रारंभिक एवं बहुचर्चित विचारधारा यह है कि सभी राजपूत वंशों की उत्पत्ति गुर्जरों से हुई है और गुर्जर विदेशी जाति के थे। तथापि उत्पत्ति पर विभिन्न मत प्रतिपादित किए गए हैं। जो अधोलिखित हैंः-

विदेशी उत्पत्ति :

कनिंघम : प्रथम राजपूत गुर्जर, हूणों और कुषाणों से संबंद्ध यू-ची जाति के थे।

ए0एम0टी0 जैक्सन : खजर जाति चौथी सदी में आर्मीनिया एवं सीरिया से आई जो हूणों के साथ भारत आई। खजर को ही भारत में गुर्जर कहा गया।

कल्हण : इसने अलखाना नामक गुर्जर शासक को नवमीं सदी में पंजाब पर शासित बताया है। इस बात के आधार पर विद्वान कहते है कि अफगानिस्तान होते हुए गुर्जर भारत के विभिन्न भागों में बसे।

चंदवरदाई : पृथ्वीराज रासो में वर्णित अग्निकुल प्रथा को विद्वान विदेशी मत मानते हैं। उनके अनुसार विदेशियों को अग्नि से पवित्र करके हिन्दु समाज में लाया गया।

कर्नल जेम्स टॉड : रीति-रिवाज के आधार पर शक, कुषाण एवं हूणों की संतान कहते हैं। विलियम ब्रुक तथा डॉ0 स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है।

डॉ0 ईश्वरी प्रसाद व डॉ0 भण्डारकर : ये भी राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के समर्थक हैं।

भारतीय उत्पत्ति :

पं0 गौरी शंकर ओझा : कर्नल टॉड के मत का खण्डन कर प्राचीन क्षत्रियों की संतान बताते हैं। चिंतामणि इसका समर्थन करते हैं।

डॉ0 आर0सी0मजूमदार : ब्राम्ह-क्षत्र सिंद्धांत का प्रतिपादन करते हैं।

डॉ0 दशरथ शर्मा : राजपूतों के संस्थापक ब्राम्हणों को ही मानते हैं।

कुमारपाल चरित और वर्ण रत्नाकर में 36 राजपूत कुलों की सूची तथा राजतंरंगणी में 36 कुलों की सूची में भिन्नता है।

विभिन्न राजपूत वंश


गुर्जर - प्रतिहार

अग्निकुण्ड के राजपूतों में सर्वाधिक इतिहास प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था। जिसका शासन आठवीं सदी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक रहा। विद्वानों की मान्यता है कि इनका भारत में निवास स्थान इन्हीं के नाम पर गुर्जरात्रा/गुजरात/ कहलाया। प्रतिहार लेखों में ये स्वयं को लक्ष्मण का वंशज मानते हैं, जो राम के प्रतिहार/द्वारपाल/ रूप में थे। गुर्जरों का मूल स्थान आबू पर्वत के निकट भीनमल अथवा उज्जियिनी माना जाता है। छठवीं सदी के मध्य में हरिचंद्र ने जोधपुर के निकट भाण्ड्यपुर /मंदौर/ में इस वंश के राज्य की नींव डाली। हरिचंद्र स्वयं ब्राम्हण था। इसकी दूसरी पत्नी क्षत्रिय थी। जिससे उत्पन्न पुत्रों ने जोधपुर, भड़ौंचत्र नांदीपुरी तथा उज्जियिनी में शासन स्थापित किए।

नागभट्ट प्रथम / ई0 730 से ई0 756/ : यह प्रारंभ में उज्जैन का शासक था तथा जोधपुर आदि अन्य शाखाओं को अपने प्रभुत्व में लेकर प्रतिहारों को वास्तविक स्थापना प्रदान की। ग्वालियर लेख के अनुसार इसने अरबों को परास्त किया किन्तु स्वयं राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग से हार गया। इसके दो उत्तराधिकारी कक्कुक एवं देवराज निर्बल शासक हुए।

वत्सराज /ई0 783 से ई0 795/ : यह देवराज का पुत्र था जिसने कन्नौज/पंचाल प्रदेश की राजधानी/ को लेकर त्रिपक्षीय संघर्ष शुरू किया। इसकी जानकारी के स्त्रोत ग्वालियर अभिलेख, जैन ग्रंथ कुवलयमाला तथा जिनसेन रचित हरिवंश पुराण है।

नागभट्ट द्वितीय /ई0 795 से ई0 833/ : यह वत्सराज का पुत्र था। इसने कन्नौज को जीत कर अपनी राजधानी बनाई। ज्ञात हो कि प्रथम राजधानी उज्जियिनी में थी। ग्वालियर अभिलेखानुसार इसने उत्तर में मत्स्य, पूर्व में वत्स तथा पश्चिम में तुरूष्कों/मुस्लिम अरब/ को हराया। किन्तु दक्षिण के राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय से हार गया।

रामभट्ट /ई0 833 से ई0 836/ : इस कमजोर शासक के समय बंगाल के देवपाल ने प्रतिहारों को काफी क्षति पहुंचाई।

मिहिरभोज /ई0 836 से ई0 885/ : प्रारंभिक असफलताओं के बाद यह सफल रहा तथा कन्नौज को अपनी पूर्ण राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कृष्ण द्वितीय को हरा कर मालवा अपने अधिकार में लिया। त्रिपक्षीय संघर्ष में यह पाल तथा राष्ट्रकूट दोनों से ही पराजित हुआ। अरब यात्री सुलेमान इसके शासन व्यवस्था की सराहना करता है। तथा मिहिर को अरबों के प्रति क्रूर और इस्लाम धर्म का विरोधी भी कहता है। सुलेमान ने सन 851 में अपना विवरण दिया। बगदाद निवासी अल-मसूदी प्रतिहारों को अल गुजर तथा मिहिर को बौरा/आदि वाराह/ कहता है। मिहिर स्वयं वैष्णव था। तथा आदि वाराह की उपाधि ली, जो कि उसके सिक्कों पर अंकित है।

महेन्द्रपाल /ई0 885 से ई0 910/ : संभवतः कश्मीर के शंकरवर्मन ने पंजाब के कुछ भाग जीत लिए। इसके समय कन्नौज पूर्ण वैभव प्राप्त नगर के रूप में विकसित हो चुका था। इसके गुरू संस्कृत के विद्वान राजशेखर दरबार की शोभा थे। जिन्होंने कर्पूरमंजरी आदि अनेक ग्रंथ लिखे। महेन्द्रपाल के बाद उसका पुत्र भेज द्वितीय/ई0 910 से ई0 912/ शासक बना किन्तु इसे हरा कर सौतेला भाई महिपाल राजा बना।

महिपाल/ई0 912 से ई0 944/ : अब भी त्रिपक्षीय संघर्ष का क्रम जारी रहा। इसके समय में ही अलमसूदी/ई0 914-15/ भारत आया। सन 915 - 918 के बीच राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय ने धावा बोल कर कन्नौज को तहस नहस कर डाला। अतः महिपाल ने प्रयाग में शरण ली। तथा जल्दी ही पुनः प्रतिष्ठा अर्जित कर ली। सन 940 के लगभग कालिंजर तथा चित्तौड़ दुर्ग राष्ट्रकूट ने जीत लिया। तथा प्रतिहारों का पतन प्रारंभ हो गया। अधीनस्थ राजा स्वतंत्र होने लगे। यह पतन मुगलों के पतन के समान ही था। सन 963 को इन्द्र तृतीय ने पुनः इनकी शक्ति पर प्रहार किया। दसवीं सदी के अंत में कन्नौज पर प्रतिहार राज्यपाल का शासन था। इसने तुर्कों के विरूद्ध हिंदुशाही जयपाल को सहयोग देकर इस्लाम का विरोध किया/ई0 991/। तथा सन 1008 में गजनवी के विरूद्ध जयपाल के पुत्र आनंदपाल का भी साथ दिया। अतः गजवनी ने सन 1018 को कन्नौज पर हमला किया किन्तु राज्यपाल बिना लड़े ही भाग गया। इसी वजह से चंदेल शासक गण्ड एवं चंदेल युवराज विद्याधर ने राज्यपाल की हत्या कर उसके पुत्र त्रिलोचनपाल को कन्नौज सौंपा। इस राज वंश का अंतिम शासक यशपाल था। जो सन 1036 तक रहा। राज्यपाल जो गजनवी के कारण भाग गया था ने गंगा पार बारी को अपनी राजधानी बना कर रहने लगा था।

राष्ट्रकूट राजवंश


ये वातापी के चालुक्य शासकों के राष्टों/जिलों/ के प्रधान थे। तथा राष्ट्रकूट उनका पद नाम था। राष्ट्रकूट लेखों में इनका मूल स्थान लट्टलूर/कर्नाटक/ माना गया, जो बाद में एलिचपुर/महाराष्ट/ में राजवंश के रूप में स्थापित हुए। 223 वर्ष बाद इन्हें कल्याणी के चालुक्यों ने पदच्युत किया। इस वंश की राजनैतिक सत्ता की स्थापना सातवीं सदी में इन्द्र ने एलिचपुर /औरंगाबाद/ में की तथा चालुक्य कुमारी से विवाह किया।

दंतिदुर्ग : इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता दंतिदुर्ग ने विक्रमादित्य द्वितीय के सामंत के रूप में जीवन प्रारंभ किया तथा 753 ई0 को कीर्तिवर्मन द्वितीय को परास्त कर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। तथा ..................... को अपनी राजधानी बनाई। कई उपाधियां लेते हुए उज्जैन में दंतिदुर्ग ने हिरण्यगर्भ/महादान/ यज्ञ कराया। यह पुत्रहीन मरा अतः चाचा कृष्ण प्रथम शासक बना।

कृष्ण प्रथम : इसने चालुक्यों को पूर्णतः उन्मूलित कर दिया। इसने एलौरा की 16 वीं गुफा में विश्वविख्यात कैलाश मंदिर का निर्माण कराया।

गोविंद द्वितीय : यह दुर्बल और विलासी शासक था। शासन अनुज ध्रुव ही संचालित करता था।

धु्रव / ई0 779 से ई0 793/: इसे धारावर्ष भी कहा जाता है। इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया। इस तरह दक्षिण से उत्तर में हस्तक्षेप करने वाली राष्ट्रकूट प्रथम शक्ति तथा धा्रुव प्रथम शासक था। यह तत्कालीन भारत का सर्वथा अजेय योद्धा शासक था। इसने निरूपम, कालिवल्लभ और श्रीवल्लभ उपाधियां लीं। सन 793 में इसका निधन हो गया।

गोविंद तृतीय /ई0 793 से ई0 814/: इसका वास्तविक नाम जयतुंग प्रभूतवर्ष था। इसका विरोध भाई स्तम्भ ने किया। अतः बारह राजाओं के संघ तथा भाइ्र स्तम्भ का सफलतापूर्वक सामना करके राजा बना। यह परवर्ती पेशवाओं की भांति दावा कर सकता था कि ‘‘ हिमालय से कन्यामुकारी तक उसके घोड़े बिना किसी दूसरे राज्य में प्रवेश किए आ - जा सकते हैं। इसने विंध्य की घाटी में अनेक मंदिर बनवाए।

अमोघवर्ष /ई0 814 से ई0 878/: इसका मूल नाम शर्व था। यह कर्क के संरक्षण में शासक बना तथा नासिक के स्थान पर मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाया। मान्यखेत नगर हैदराबाद के निकट इसने ही स्थापित कराया। इसने अपनी पुत्री चंद्रबेलब्बा को रायचूर दोआब का राज्यपाल बनाया। अरब यात्री सुलेमान ने इसे विश्व के चार महान शासकों में बता कर बल्हर कहा है। अमोघवर्ष , जैन धर्म के स्यादवाद का अनुयायी था। अमोघवर्ष, कन्नड़ भाषा में कविराज मार्ग तथा नाट्य ग्रंथ प्रश्नोत्तरमालिका की रचना की। इसके दरबारी कवि जिनसेन ने आदिपुराण और हरिवंश पुराण तथा महावीराचार्य ने गणित सा संग्रह की रचना की। अपने राज्य में पड़े अकाल से मुक्ति पाने हेतु अमोघवर्ष ने महालक्ष्मी देवी को अपने बांए हाथ की अंगुली काटकर चढ़ाई थी। जिससे इसकी तुलना शिवि, दधिचि आदि से की गई है। वृद्धावस्था में सन्यास ले लिया तथा राजपाट पुत्र कृष्ण द्वितीय को सौंप दिया।

इस वंश का अंतिम प्रतापी राजा कृष्ण तृतीय था। इसके उत्तराधिकारी खोट्टिग के समय परमार सीयक द्वितीय ने मान्यखेत लूटा। अंतिम शासक कर्क द्वितीय को परास्त कर तैलप द्वितीय ने कल्याणी के चालुक्य वंश की स्थापना की।

स्मरणीय तथ्य 

- मसूदी, 
राष्ट्रकूट को दक्षिणी बलहरा कहता है।

- कृष्णा प्रथम का नाम शुभतुंग तथा अकालवर्ष था।

राष्ट्रकूट की प्रथम राजधानी ?


पाल राजवंश बंगाल


गोपाल /ई0 750 से ई0 770/: बंगाल में फैली अराजकता के कारण वहां की जनता ने गोपाल को अपना प्रतिनिधि चुना। लामा तारानाथ के अनुसार यह पुण्डवर्धन का क्षत्रिय था। गोपाल का धर्म बौद्ध था। इसने ओदयन्तपुर में विहार बनवाया।

धर्मपाल /ई0 770 से ई0 810/: गुजराती कवि सोड्ढल/ग्यारहवीं सदी/ इसे उत्तरापथ स्वामिन कहता है। यह त्रिपक्षीय संघर्ष में पहला पाल शासक था। धर्मपाल ने भागलपुर जिला/बिहार/ में पाथरघाट नामक स्थान पर विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस बौद्ध शासक ने बौद्ध धर्म से प्रभावित हो कर परम सौगात की उपाधि ली। इसका अन्य नाम विक्रमशील था।

देवपाल /ई0 810 से ई0 850/: सुलेमान ने पाल - प्रतिहार - राष्ट्रकूट में सबसे ज्यादा शक्तिशाली कहा है। इसने अपनी राजधानी मुंगेर/बिहार/ में बनाई। तारानाथ ने इसे बौद्ध धर्म का पुर्नसंस्थापक कहा है। इसने नालंदा में विहार बननाने जावा नरेश बालपुत्र देव को आज्ञा दी। देवपाल ने नगरहार के विद्वान वीरदेव को नालंदा विहार का अध्यक्ष बनाया था। यह उत्तर भारत का प्रथम राजा था, जिसने पाण्ड्यों के विरोधी दक्षिणी राज्यों को सहयोग दिया।

महीपाल प्रथम /ई0 988 से ई0 1038/: ई0 850 से ई0 988 तक पालों का अवनति काल था। यह पाल वंश का नौवां शासक था। इसे पाल वंश का द्वितीय संस्थापक भी कहा जाता है। इसने सारनाथ, नालंदा एवं बनारस में विहार बनवाए।

नयपाल /ई0 1038 से ई0 1055/: इस समय की प्रमुख घटना कलचुरि वंश से युद्ध है। इस अति भीषण युद्ध का अंत बौद्ध विद्वान दीपंकर ज्ञी ज्ञान ‘‘ अतीश ’’ के हस्तक्षेप से कर्ण और नयपाल के बीच संधि से हुआ।

विग्रहपाल तृतीय /ई0 1055 से ई0 1072 /: इसने कलचुरि कर्ण ने अपनी पुत्री यौवन श्री का विवाह विग्रहराज से किया। किन्तु ययाति/कोसल/ आदि के हमलों से पाल सत्ता दरकने लगी।

रामपाल /ई0 1077 से ई0 1130/: संध्याकर नंदी द्वारा लिखित रामचरित /बारहवीं सदी/ से इससका बहुत सा इतिहास ज्ञात होता है। इसके अनुसार रामपाल पूर्व शासक महीपाल द्वितीय/ई0 1072 से ई0 1077/ का भाई था। महीपाल ने रामपाल और शूरपाल को कैद कर लिया किन्तु ये दोनों मगध भाग गए तथा शूरपाल मगध में शासक बना। शूरपाल के मरने के बाद रामपाल ने मगध पर शासन किया। तथा वहां से सारा बंगाल जीत कर पुनः पाल वंश की प्रतिष्ठा स्थापित की। इसने गहदवालों से वैवाहिक संबंध किए।

इस वंश का अंतिम शासक मदनपाल था। इस के बाद बंगाल पर सेन वंश का प्रभुत्व हो गया।

स्मरणीय तथ्य

- धर्मपाल की गौरव गाथा नेपाल के ग्रंथों में सुरक्षित है। धर्मपाल वृद्धावस्था में राजनयिक उद्देश्य से राष्ट्रकूट राजकुमारी से विवाह किया, जिससे देवपाल का जन्म हुआ।

- गोपाल के पिता दयितविष्णु तथा दादा वय्यट थे।

- पलों की प्रिय उपाधि ‘‘ परम सौगात ’’ थी।

- नालंदा छठवीं सदी में प्रभावशाली बना उसके पूर्व प्रमुख केन्द्र तक्षशिला था।

- नालंदा में वेदों में अथर्ववेद का अध्यययन होता था।


कन्नौज और गहड़वाल राजवंश


सुल्तान महमूद की कन्नौज और बारी की लूट ने प्रतिहारों का पतन किया। लगभग ई0 1027 तक त्रिलोचन पाल प्र्रतिहार शासक था। संभवतः सन 1036 ई0 तक प्रतिहार कन्नौज पर बने रहे। उसके बाद लगभग पचास वर्ष राष्ट्रकूट वंश के सरदारों ने कन्नौज पर आधिपत्य किया। ई0 1085 के लगभग गजनवी के बेटे ने कन्नौज जीत लिया। तब ये राष्ट्रकूट सरदार कन्नौज छोड़ कर वोदमायुत /बदायूं/ चले गए। जिन्हें सन 1202 में ऐबक ने जीता।

गहड़वाल गुहिलौत नाम से भी जाने जाते हैं। इस वंश का संस्थापक यशोविग्रह था जिसने मिर्जापुर की पहाड़ियों पर अपना राज्य स्थापित किया था।

चंद्रदेव /ई0 1080 से ई0 1100/: चंद्रदेव इस वंश का पहला शासक था। इसने राष्ट्रकूट सरदार गोपाल को हरा कर कन्नौज जीता। तथा अपनी राजधानी बनाई। इसने 1100 ई0 तक शासन किया। गहड़वालों का उल्लेख काशी नरेशों के रूप में आया है। शायद इनकी दूसरी राजधानी बनारस थी।

मदनचंद्र /ई0 1100 से ई0 1114/: तुर्क हमलावरों ने कन्नौज पर आक्रमण कर इसे बंदी बना लिया। तब पुत्र गोविंद चंद्र ने इसे छुड़ाया। इतिहासकार , मदनचंद्र को मल्ही भी कहते हैं।

गोविंदचंद्र /ई0 1114 से ई0 1154/: यह इस वंश का महान यशस्वी शासक था। इस समय पुनः कन्नौज का वैभव वापस आया। चोलों से इसकी घनिष्ठता थी। इस समय भारत पर तुर्की आक्रमण होने लगे थे। अतः उन आक्रमणों से बचाव हेतु अपनी जनता पर तुरूष्कदण्ड नामक कर लगाया। इसकी पत्नी कुमारदेवी के सारनाथ नामक कर लगाया। इसकी पत्नी कुमार देवी के सारनाथ लेख में बनारस की रक्षा तुर्कों से करने पर हरि का अवतार कहा है। लेखों में इसे विविध विचार वाचस्पति कहा है। गोविंदचंद्र के मंत्री लक्ष्मीधर ने विविध ग्रंथ कल्पद्रुम /कृत्य कल्प तरू/ लिखा। इसकी पत्नी बौद्ध थी। पत्नी ने जेतवन विहार को दान दिया था।

विजय चंद्र /ई0 1154 से ई0 1170/: इसने तुर्क सरदार अमीर खुसरो तथा खुसरो के पुत्र खुसरो मलिक को लाहौर से हटाया। इस समय दिल्ली गहड़वालों से चौहानों ने छीन ली।

जयचंद्र /ई0 1170 से ई0 1193/: अब दिल्ली को लेकर चौहानों से गहड़वालों की प्रतिद्वंद्विता बढ़ गई। 1193 ई0 के चंदावर के युद्ध में इसे मुहम्मद गौरी ने परास्त कर कन्नौज पर तुर्क सत्ता स्थापित की। इसका दरबारी विद्वान श्री हर्ष ने नैषध चरित की रचना की।

जयचंद्र के पुत्र हरिश्चंद्र ने तुर्कों से राज्य वापसी का असफल प्रयास किया तथा पौत्र अड़कमल ने इल्तुतमिश से डर कर नागौद/म0प्र0/ में शरण ली।

सेन राजवंश बंगाल


सेन शासक कर्नाटक के ब्राम्हण वंशज थे। जो चालुक्य विक्रमादित्य षष्टम के समय उत्तर की ओर आए। पहले राढ़/पश्चिम बंगाल/ में बसे। इस वंश का संस्थापक सामंत सेन को माना जाता है। उसके पुत्र हेमन्त सेन ने राढ़ में स्वतंत्र सत्ता की स्थापना कीं

विजयसेन /ई0 1095 से ई0 1158/: यह इस वंश का प्रथम वास्तविक शासक था। इसने पाल शासक मदनपाल को हरा कर बंगाल को जीत लिया। विजयसेन शैव था। देवपाड़ा के निकट प्रदुम्नेश्वर शिवमंदिर का निर्माण करवाया। जबकि इसकी रानी ने कनक तुला पुरूष महादान यज्ञ करवाया। विजयसेन की उपलब्धियों से प्रभावित हो कर कवि श्री हर्ष ने विजय प्रशस्ति तथा गौर्ड़ेविश प्रशस्ति ग्रंथों की रचना की।

बल्लाल सेन /ई0 1158 से ई0 1178/: पालों का सारे बंगाल से उन्मूलन कर इसने गौड़ेश्वर की उपाधि ली। आनंद भट्ट रचित बल्लाल चरित में इसके साम्राजय का उल्लेख प्राप्त होता है। इसने चालुक्य वंश शासकों से वैवाहिक संबंध बनाए। यह भी शैव था। बल्लाल ने अनेक सामाजिक परिवर्तन किए तथा ब्राम्हण व्यवस्था की पुर्नस्थापना की। इसके समय कुलीन प्र्रथा का विकास हुआ। तथा ब्राम्हणों को कन्नौज से बुला कर बंगाल में बसाया /कुल शास्त्र के अनुसार/ । यह स्वयं विद्वान था। इसने स्मृति ग्रंथ दानसागर तथा ज्योतिष ग्रंथ अद्भुत ग्रंथ /लक्ष्मण सेन द्वारा पूर्ण की गई।/ लिखा। बल्लाल के गुरू का नाम अनिरूद्ध था। बल्लाल ने अंतिम समय में अपनी रानी के साथ सन्यास ले कर त्रिवेणी में प्राण त्यागे।

लक्ष्मण सेन /ई0 1178 से ई0 1205/: यह अंतिम महान शासक था जो 60 वर्ष की उम्र में राजा बना। इसका मुख्य कार्य जयचंद्र गहड़वाल को हराना था। अंतिम वर्षों में इसके सामंत विद्रोह करके स्वतंत्र हो गए। लगभग 1202 ई0 में मुहम्मद बख्तियार खिलजी ने इसकी राजधानी लखनौती को जीत लिया। अतः इसने सोनारगांव को सत्ता का केन्द्र बनाया। यह विद्वानों का संरक्षक था। पिता के ग्रंथ अद्भुत सागर को पूर्ण किया। इसके दरबार में जयदेव/गीत गोविंद/, धायी/पवनदूतम/ तथा हलायुध जैसे विद्वान रहते थे। लक्ष्मण सेन द्वारा रचित कुछ कविताएं हमें श्री धरदास द्वारा रचित ग्रंथ सुदुलकर्णामृत से प्राप्त होतती हैं। इसने लक्ष्मण संवत भी चलाया। यह स्वयं वैष्णव था। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिन्हाजुस्सिराज ने लक्ष्मण सेन की न्यायप्रियता तथा दानशीलता की प्रशंसा की है। इसे भारतीय शासकों में वैसा ही प्रमुख बताया है जैसे मुस्लिम जगत में खलीफा। मुस्लिम इतिहासकारों ने इसकी मृत्यु पर मुक्ति की प्रार्थना की है। इसे कवियों का सरदार कहा गया है।

इसके बाद क्रमशः विश्वरूप सेन /ई0 1205 से ई0 1219/, केशव सेन /ई0 1219 से ई0 1245/ ने शासन किया। फिर देव वंश के दशरथ ने सेन वंश को समाप्त कर पूर्वी बंगाल पर राज किया। शेष बंगाल तुर्कों ने विजित कर लिया।

स्मरणीय तथ्य

- सेन राजधानी पश्चिम बंगाल के नादिया में थी।

चौहान या चाह्मान राजवंश


चौहानों की कई शाखाएं थीं। उनकी मुख्य शाखा सपदलक्ष प्रदेश पर राज्य करती थी। जिसकी राजधानी शाकम्भरी/सांभर, अजमेर/ थी। इस वंश की स्थापना वसुदेव ने की थी। इस वंश के प्रारंभिक शासक गुर्जर - प्रतिहारों के सामंत थे। आठवे सामंत शासक दुर्लभराज प्रथम ने वत्सराज प्रतिहार को बंगाल अभियान में सहयोग किया। दुर्लभ के पुत्र गोविंद राज/गूवक/ ने नागभट्ट द्वितीय के समय प्रमुखता पाई। वंश के तेरहवें शासक वाक्पति राज प्रथम ने प्रारंभिक दसववीं सदी में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। तथा इसके पुत्र सिंहराज/सिद्धराज/ ने महाराजाधिराज की उपाधि ली। और पूर्ण स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।

अजयराज /ई0 1105 से ई0 1130/: इसने सर्वप्रथम आकक्रमक साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। इसने अजयमेरू/अजमेर/ नामक नगर बसाया। इसके सिक्कों पर इसकी पत्नी सोमल्ल देवी का भी नाम मिलता है। इसने राजधानी अजमेर ले आया।

अर्णोराज /ई0 1130 से ई0 1150/: इसने अजमेर के निकट तुर्क सेना का हराया। यह शैव था। तथ पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण कराया। इसकी हत्या पुत्र जयदेव ने कर दीं

विग्रहराज चतुर्थ /ई0 1150 से ई0 1164/: यह बीसलदेव के नाम से प्रसिद्ध है। इसने अपने भाई जयदेव को सिंहासन से उतार कर सत्ता प्राप्त की। इसने गहड़वालों के अधीन तोमरों से दिल्ली जीत लिया। विग्रहराज ने नाटक हरिकेलि लिखा है। जिसके अंश अजमेर में पत्थर पर खुदे हैं। इसी प्रकार विग्रहराज की प्रशंसा में महाकवि सोमदेव द्वारा लिखित ललित विग्रहराज नाटक के कुछ अंशअजममेर की एक मस्जिद/अढ़ाई दिन का झोपड़ा/ के पत्थर पर खुदे हैं। अजमेर की संस्कृत शाला जिसे तोड़कर एबक ने मस्जिद बना दी, विग्रहराज ने ही बनवाई थी। विशालसागर झील का निर्माण कराया। स्वयं शैव था। तथापि जैन विहारों को दान दिया। इसका पुत्र अपर गांगेय/ई01164/ कुछ दिन ही शासक रहा।

पृथ्वीराज द्वितीय/ई0 1164 से ई0 1169/ :


सोमेश्वर /ई0 1169 से ई0 1173/: यह अर्णोराज और चालुक्य कुमारी से उत्पन्न संतान था। इसका बचपन और यौवन नाना जयसिंह सिद्धराज के दरबार में बीता। वहीं पर इसनने कलचुरि कुमारी कर्पूर देवी से विवाह किया, जिससे पृथ्वीराज और हरिराज का जन्म हुआ। पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु बाद मंत्रियों के अनुग्रह पर यह शाकंभरी का राजा बना।

पृथ्वीराज तृतीय /ई0 1173 से ई0 1192/: यह राय पिथौरा के नाम से विख्यात है। यह अल्पावस्था में शासक बना। अतः मंत्री कैम्बास के सानिध्य में मां कर्पूर देवी संरक्षिका बनी। इसने चंदेल राजा परमार्दि देव के विरूद्ध प्रसिद्ध महोबा का युद्ध लड़ा। इसमें बनाफर सरदार आल्हा - उदल ने भी भाग लिया। तराइन के युद्ध/ई0 1191/ में मुहम्मद गौरी को हराया परन्तु ई0 1192 में स्वयं हार गया। इसके बाद गोविंद एवं हरिराज ने तुर्कों के अधीन शासन किया। अंततः ऐबक ने दिल्ली तथा अजमेर को तुर्कों के हाथ से जीत लिया। तथा हरिराज ने आत्मदाह कर लिया। पृथ्वीराज चौहान के राजकवि चंदवरदाई ने हिन्दी साहित्य का प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो लिखा। इसके दरबार में जयानक भट्ट, विद्यापति गौड़, पृथ्वी भट्ट, वागीश्वर, जर्नादन, विश्वरूप आदि विद्वान थे।

चौहानों की अन्य शाखाएं


नद्दुल : वाक्पतिराज प्रथम के छोटे पुत्र लक्ष्मण ने जोधपुर के नद्दुल में इसे स्थापित किया। तथा सन 1178 में कल्हण ने नद्दुल को स्वतंत्र राज्य बनाया। जयसिंह के समय 1197 ई0 को ऐबक ने यहां हमला किया। नद्दुल का राज्य शीघ्र ही चौलुक्य/सोलंकी/ भीम द्वितीय के हाथों में चला गया। इसे पुनः जालोर शाखा के उदय सिंह ने जीत लिया। किन्तु उदयसिंह को इल्तुतमिश ने नतमस्तक किया परन्तु मुक्त हो गया। अंततः अलाउद्दीन खिलजी ने इस राज्य को पूर्णतः विजित कर लिया।

सत्यपुर शाखा : सत्यपुर जालौर में स्थापित था।


रण थम्भौर शाखा : इस शाखा की स्थापना पृथ्वीराज तृतीय द्वारा निर्वासित व्यक्ति ने बारहवीं सदी के अंत में की। मुख्य वंश के पतन के उपरांत ही इसका महत्व बढ़ा। जब मुसलमानों ने अजमेर विजित कर लिया तो रणथम्भौर के शासक बाल्हण देव/ई0 1215/ ने इल्तुतमिश का करद बनना स्वीकार कर लिया। किन्तु मुकर जाने पर 1226 ई0 रणथम्भौर पुनः जीत लिया गया। अतः ई0 1236 के बाद चाहमान शासक वाग्भट्ट ने पुनः रणथम्भौर जीता। इसने बलवन के 1248 ई0 एवं 1253 ई0 के हमलों को असफल कर दिया। समकालीन इतिहासकारों ने वाग्भट्ट/वाहरदेव/ को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा रईस कहा है। इसके पुत्र जयसिंह को नासिरूद्दीन महमूद ने हराकर रणथम्भौर जीता। किन्तु बाद में पुनः स्वतंत्र हो गया। जयसिंह का पुत्र हम्मीर इस वंश का महान शासक था। जिसने शरणागत की रक्षा हेतु प्राण न्यौछावर कर दिए। इसका विशद वर्णन हम्मीर महाकाव्य से प्राप्त होता है। यह 1282 ई0 में शासक बना। इसने जलालुद्दीन खिलजी के हमले को विफल किया। अलाउद्दीन के समय हम्मीर ने उसके विद्रोही मुहम्मद शाह को शरण दी तथा इसी शरणागत के रक्षार्थ अलाउद्दीन से लड़ते हुए मारा गया। 1301 ई0 में रणथम्भौर , दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।

स्मरणीय तथ्य


- विग्रहराज ने सम्राट अशोक के स्तम्भ लेख ? पर अपना लेख भी उत्कीर्ण करवाया।


- विग्रहराज का काल सपदलक्ष/सांभर, दिल्ली, अजमेर/ का स्वर्ण काल था।


- सन 1190 ई0 में मुहम्मद गोरी ने तबरहिन्द का किला चौहानों से जीता।
स्मरणीय तथ्य

- विग्रहराज ने सम्राट अशोक के स्तम्भ लेख ? पर अपना लेख भी उत्कीर्ण करवाया।

- विग्रहराज का काल सपदलक्ष/सांभर, दिल्ली, अजमेर/ का स्वर्ण काल था।

- सन 1190 ई0 में मुहम्मद गोरी ने तबरहिन्द का किला चौहानों से जीता।




गुजरात के सोलंकी/चौलुक्य


941 ई0 के आसपास मूलराज प्रथम /ई0 941 से ई0 995/ ने इस वंश की नींव डाली तथा सारस्वत मण्डल जीत कर अन्हिलपाटन/गुजरात/ को अपनी राजधानी बनाई। इसे विग्रहपाल द्वितीय चौहान ने हराया और मार डाला। इसके पुत्र चामुण्डराय /ई0 995 से ई0 1008/ को भी परमारों और कलचुरियों से लड़ना पड़ा। इसने पुत्र वल्लभराज को सत्ता सौंप बनारस तीर्थ यात्रा की तथा वापस आने और वल्लभ की मृत्यु हो जाने पर दूसरे पुत्र दुर्लभराज को शासक बनाया। दुर्लभराज ने भी भतीजे भीमराज प्रथम के पक्ष में सत्ता त्याग दी।

भीमराज प्रथम /ई0 0122 से ई0 1064/: महमूद गजनवी के सोमनाथ/प्रभासपाटन/ आक्रमण/ई0 1025-26/ पर यह कच्छ भाग गया किन्तु गजनवी के लौट जाने पर भीमराज ने सोमनाथ मंदिर का पुनः निर्माण कराया। इसके सामंत विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा जैन मंदिर बनवाया। भीमराज ने पुत्र कर्ण के पक्ष में राज सत्ता का त्याग कर दिया।

कर्ण /ई0 1064 से ई0 1094/ : मालवा विजेता


जयसिंह सिद्धराज/ई0 1094 से ई0 1145/: पिता कर्ण की मृत्यु के उपरांत शासक बना तथा सिद्धराज की उपाधि धारण की। यह साम्राज्यवादी तथा शक्तिशाली राजा था। इसने आबू पर्वत पर पूर्वजों की हाथी पर आरूढ़ मूर्तियां तथा रूद्रमहाकाल मंदिर/सिद्धपुर/ का निर्माण करवाया। कुमारपाल चरित तथा द्वयाश्रय काव्य का रचनाकार जैन विद्वान हेमचंद्र इसका दरबारी था। जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था अतः उसने अपने मंत्री उदयन के पुत्र बाहड़ को अपना उत्तराधिकारी बनाया किन्तु भीमराज प्रथम के दूरस्थ वंशज कुमारपाल ने उससे सत्ता छीन लिया। बाहड़ का पक्ष अर्णोराज चौहान ने लिया था।

कुमारपाल /ई0 1145 से ई0 1172/: इसने अर्णोराज , विक्रमसिंहह परमार तथा मालवा के बल्लार को परास्त किया। सभी पूर्व राजा शैव थे किन्तु जैन विद्वान हेमचंद्र के प्रभाव से कुमारपाल , जैन अनुयायी हो गया। तथा यज्ञीय हिंसा को प्रतिबंधित कर दिया। कुमारपाल चरित इसी शासक पर आधारित है।

अजयपाल /ई0 1172 से ई0 1176/: कुमारपाल की मृत्यु के बाद सत्ता संघर्ष में भांजे प्रतापमल के विरोध में भतीजा अजयपाल सफल हुआ। जैन ग्रंथों में इसे जैन धर्म का कट्टर विरोधी बतायया है। सन 1176 में इसकी हत्या हो गई। हत्यारा, द्वारपाल वज्जलदेव था।

मूलराज द्वितीय /ई0 1176 से ई0 1178/: यह अपनी मां नायिका देवी के संरक्षण में शासक बना। जो गोवा के कदम्ब राज परमार्दिन की बेटी थी। सन 1178 में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने गुजरात पर हमला किया तो रानी ने नेतृत्व करते हुए आबू पर्वत के निकट गोरी को पराजित किया। इस राजा के समय मालवा स्वतंत्र हो गया।

भीमदेव द्वितीय/ई0 1178 से ई0 1241/: सन 1178 में मूलराज के मरने के बाद उसका भाई भीम राजा बना। किन्तु अब तक प्रांतीय सामंत स्वतंत्र होने लगे। किन्तु बघेल सरदार अर्णोराज ने स्थिति संभालने का प्रयास किया। और मारा गया। तब अर्णाराज के पुत्र और भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने भीम के संरक्षक के तौर पर नई राजधानी ढोल्का से शासन किया। जिसमें तेजपाल और वस्तुपाल उसके सहायक थे। सन 1198 में ऐबक ने गुजरात को लूटा। सन 1210 में जयन्तसिंह ने गुजरात की गद्दी छीन ली किन्तु सन 1225 के लगभग लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीर बघेल ने जयन्त को मार भगाया। सन 1231 में लवणप्रसाद ने सार्वजनिक जीवन से सन्यास ले लिया। अतः वीर बघेल मंत्री बना। सन 1241 में भीमदेव की मृत्यु हो गई।

त्रिभुवन पाल /ई0 1241 से ई0 /: वीर बघेल के पुत्र वीरम ने इसे भगा कर बघेल राजवंश की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। इसी बघेल वंश के वीरम के बाद चौथे राजा कर्ण को हराकर अलाउद्दीन ने सन 1297 में गुजरात लिया।

स्मरणीय तथ्य

- सोलंकी शासक जैन धर्म के पोषक तथा सरंक्षक थे।

गुजरात के सोलंकी/चौलुक्य


चंदेलों को राजपूतों के 36 राजवंशों में से एक माना गया है। जो अपने को ऋषि चंद्रात्रेय का वंशज कहते हैं।चंदेलों का उदय प्रतिहारों के पतन के उपरांत बुन्देलखण्ड में हुआ। उस राज्य की राजधानी खर्जूरवाहक थी। इस वंश की स्थापना नन्नुक नामक व्यक्ति ने सन 831 ई0 के लगभग की। प्रारंभिक चंदेल , प्रतिहारों के सामंत थे। नन्नुक पुत्र वाक्पति ने राज्य विंध्याचल पर्वत तक विस्तारित किया। इसके पुत्र जयसिंह/जेजाक/ के नाम पर बुन्देलखण्ड जैजाकभुक्ति कहलाया। इसके बाद क्रमशः विजयशक्ति /विज्जक/, राहिल/महोबा जीता/ शासक बने।

हर्ष/ई0 915 से ई0 930/: इसने प्रतिहार महीपाल प्रथम को सहायता दी।

यशोवर्मन /ई0 930 से ई0 950/: यह स्वतंत्र शासक था। इसने प्र्रतिहारों की गुलामी त्याग दी अतः यह गुर्जरों के लिए तप्त अग्नि कहलाया। इसने प्रतिहारों से प्रसिद्ध कालिंजर का दुर्ग छीन लिया। इसने खजुराहो में विष्णुमंदिर/चर्तुभुज मंदिर/ बनवाया। एवं प्रतिहार नरेश देवपाल से पप्राप्त बैकुण्ठ मूर्ति स्थापित कराई।

धंग/ई0 950 से ई0 1007/: यह वास्तविक स्वाधीन राजा था। तथा नाम मात्र के लिए भी प्रतिहारों का प्रभुत्व स्वीकार नहीं किया। इसे चंदेलों की वास्तविक स्वतंत्रता का जप्मदाता कहा जाता है। इसने कुछ समय के लिए कालिंजर को अपनी राजधानी बनाई। इसने महाराजाधिराज की उपाधि ली। फरिश्ता के अनुसार धंग ने सुबुक्तगीन के विरूद्ध जयपाल/शाही राजा/ का साथ दिया था। यह स्वयं को कालिंजरपति कहता था। धंग की मृत्यु 100 वर्ष की उम्र में हुई। धंग खजुराहो में भव्य मंदिरों का निर्माता कहा जाता है।

गण्ड/ई0 1007 से ई0 1019/: इसने कन्नौज के भगौड़े शासक राज्यपाल/गजनवी के विरूद्ध/ का वध पुत्र विद्याधर के हाथों कराया। इसने भी गजनवी के विरूद्ध आनंदपाल/शाही राजा/ का साथ दिया था।

विद्याधर /ईव 1019 से ई0 1029/: राज्यपाल के वध से रूष्ट महमूद गजनवी ने इस राज्य पर ई0 1019 तथा ई0 1022 में दो आक्रमण किए, किन्तु विद्याधर ने ैबवतबीमक म्ंतजी च्वसपबल धारण कर राज्य को सुरक्षित रखा। तथा इसे एकमात्र ऐसा भारतीय शासक होने का गौरव प्राप्त है जो गजनवी से स्वयं को सुरक्षित रख उससे संधि की। ई0 1029 में इसकी मृत्यु हो गई।

परमार्दि /ई0 1165 से ई0 1203/: यह विद्याधर के बाद नौवां शासक था। इसे परमाल भी कहा गया है। ईव 1173 में चालुक्यों से भिलसा छीन लिया। सन 1182 ई0 में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के युद्ध में हरा कर सारे राज्य को रौंद डाला। सन 1203 ई0 में ऐबक ने मजबूत कालिंजर का दुर्ग छीन लिया। तनिक विरोध के बाद इसने मुसलमानों को खिराज देना स्वीकार किया। किन्तु इसके स्वाभिमानी मंत्री अजयदेव ने मुसलमानों के समक्ष झुकने से मना कर दिया। परमार्दि की हत्या कर स्वयं ने लड़ाई जारी रखी। परन्तु पराजित हुआ तथापि अजयदेव ने देशभक्ति की नींव डाल दी। इसकी पत्नी ने पृथ्वीराज से संधि ववार्ता चलाई थी।

त्रिलोकवर्मन /ई0 1203 से ई0 1247/: इसने ककरादह के युद्ध में मुसलमानों को हरा कर कालिंजर का दुर्ग पुनः प्राप्त किया।

वीर्यवर्मा /ई0 1247 से ई0 1286/: इसके दो पुत्र भोज तथा हम्मीर /1288 से 1310/ को अलाउद्दीन खिलजी ने हरा कर बुन्देलखण्ड को सल्तनत का अंग बनाया।

परमार राजवंश


परमारों का संबंध भी अग्निकुल से है तथापि लेखों में ये स्वयं को राष्ट्रकूट वंशज कहते हैं।उज्जैन, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट का संघर्ष बिंदु था। यहां पर राष्ट्रकूट ने प्रतिहारों से ई0 946 के लगभग मालवा छीन लिया। तथा अपने सामंत के रूप में उपन्द्र कृष्णराज को नियुक्त किया। जो परमार वंश का संस्थापक था। उपेन्द्र का वंशज वैरिसिंह प्रथम ने मालवा पर अपना दावा बनाए रखा तथा राजधानी धारानगरी/धार/ रही। इस वंश के हर्षसिंह अथवा सीयक द्वितीय/ई0 945 - ई0 972/ ने राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तथा मालवा में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

मुंज /ई0 972 - ई0 996/: मुंज, उत्पल तथा वाक्पतिराज द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है। इसने हूणों को हराया था। इसके कहर से मूलराज सोलंकी ने मारवाड़ में शरण ली थी। इसका मुख्य शत्रु चालुक्य राज तैलप द्वितीय जिसे इसने छः बार हराया परन्तु सातवें आक्रमण में गोदावरी नदी के तट पर यह मारा गया। इनके झगड़े का मुख्य कारण राष्ट्रकूट क्षेत्र पर अधिकार करना था। इस तरह मुंज अपने शत्रु देश मे मारा गया। इसके दरबार में पद्मगुप्त, धनंजय, धनिक, हलायुध, भट्ट आदि कवि थे। इस समय राजधानी उज्जैन को ख्याति मिली।

सिंधुराज /ई0 996 - ई0 1010/: यह मुंज का छोटा भाई था। इसने सत्याश्रय चालुक्य को पराजित कर बदला पूरा किया। महाकवि पद्मगुप्त ने अपनी रचना नवसाहसांक चरित में इसी का जीवन वृत्त दिया है। सिंधुराज, कुमार नारायण तथा नवसाहसांक के नाम से प्रसिद्ध है।

भोज /ई0 1010 - ई0 1055/: इसने राजेन्द्र चोल और गांगेयदेव के साथ मिलकर जयसिंह चालुक्य पर आक्रमण किया अतः जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर प्रथम ने धार, माण्डू तथा उज्जैन में लूट मचा दी। बाद में सोलंकी और कलचुरि शासकों मैत्री कर मालवा नष्ट किया। यह एक राजनेता की अपनी विद्वता के लिए याद किया जाता है। भोज ने अपनी राजधानी उज्जैन से धार ले गया। बिहार में भोजपुर की स्थापना की । केदारनाथ, रामेश्वरम तथा सोमनाथ में मंदिर बनवाए। भोपाल/म0प्र0/ में भेजताल नामक झील बनवाई। भोज ने विभिन्न विषयों पर बीस से अधिक ग्रंथ लिखे। राज मार्तण्ड, समरांगण सूत्रधार आदि ग्रंथ लिखे। आइने अकबरी में इसे 500 विद्वानों का संरक्षक कहा गया है।इसकी मृत्यु पर कहा गया ‘‘ अध धारा निरा धारा, निरालम्बा सरस्वती। धनपाल और उबट प्रमुख दरबारी कवि थे।

जयसिंह /ई0 1055 - ई0 1070/: सोलंकी तथा कलचुरियों की सेना के विरूद्ध जयसिंह ने अपने परंपरागत शत्रु चालुक्यों की सहायता प्राप्त की तथा पुनः मालवा पर शासन किया। किन्तु चालुक्य विक्रमादित्य के भाई सोमेश्वर द्वितीय ने कर्ण सोलंकी के सहयोग से मालवा जीत लिया। इस युद्ध में जयसिंह मारा गया।

उदयादित्य /ई0 1070 - ई0 1086 /: इसने अजमेर के चौहानों की सहायता से पुनः मालवा को जीत लिया। यह चौहान राजा विग्रहराज तृतीय था।

लक्ष्मणदेव /ई0 1086 - ई0 1094/: इसने कलचुरि यशकर्ण को हराया। और कांगड़ा जीता। पश्चिम भारत में इसकी विजय गाथा जयदेव नाम से विख्यात है। इसे उदयादित्य का बेटा कहा गया है।

नरवर्मा /ई0 1094 - ई0 1133/: इसे सोलंकी जयसिंह सिद्धराज ने बंदी बनाया तथा बाद में छोड़ कर परमार को अपमानित किया।

यशवर्मा /ई0 1133 - ई0 1142/: देवास स्वतंत्र हो गया। चंदेलों ने भ्लिसा जीत लिया तथाचौहानों ने उज्जैन पर हमला कर दिया। जयसिंह सिद्धराज ने नद्दुल के चौहान की सहायता से यशोवर्मा को पराजित कर सारे मालवा को जीत लिया।

जयवर्मन /ई0 1142 - /: यशोवर्मा के पुत्र जयवर्मा ने पुनः मालवा जीत लिया पर जगदेकमल्ल सोलंकी तथा होयसल की संयुक्त सेना ने पुननः मालवा जीत लिया। तथा बल्लाल नामक व्यक्ति को गद्दी पर बैठाया। पर कुमारपाल सोलंकी ने बल्लाल को हटा कर पुनः मालवा पर आधिपत्य किया।

विंध्ययवर्मा /ई0 - ई0 1193/: इसने सोलंकी मूलराज द्वितीय को परास्त कर मालवा को बीस वर्षीय सोलंकी कब्जे से मुक्त कराया। मालवा को समृद्धि प्रदान की। इसकी मृत्यु 1193 ई0 को हुई।

सुभद्रमर्वा /ई0 1193 - ई0 1210/: इसने आक्रमक नीति का पलन किया तथा सोलंकी राजधानी अन्हिलपाटन पर ही हमला कर दिया परन्तु हार गया।

अर्जुनवर्मा /ई0 1210 - ई0 1218/: यह सिंहण के हाथों हारा। इसके दरबारी कवि मदन ने जयसिंह सोलंकी की बेटी तथा अर्जुनवर्मा के विवाह पर पारिजात मंजरी नाटक लिखा।

देवपाल /ई0 1218 - ई0 1232/: इल्तुतमिश ने धावा बोल कर उज्जैन को लूटा। अगले शासक जैतुगि के समय यादवों, बघेलों ने मालवा लूटा तथा 1205 ई0 को सुल्तान बलवन की सेना ने भी हमला किया। लगभग 1305 ई0 को अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण किया तो अंतिम परमार राजा महलक देव ने माण्डू में शरण ली जहां वह मारा गया। इस प्रकार मालवा दिल्ली की गोद मे चला गया।

स्मरणीय तथ्य

- मुंज, सीयक को नवजात रूप में घास पर पड़ा मिला अतः अपना दत्तक पुत्र माना। मुंज, घास का पर्यायवाची शब्द है। मुंज की मृत्यु तैलप द्वितीय की बहन मृणालवती, जो मुंज की प्रेयसि थी के विश्वास घात के कारण हुई।

- राजा भोज की पत्नी अरून्धति विदुषी महिला थी।

कलचुरि राजवंश


कलचुरि प्राचीन जाति थी जो हैहय नाम से प्रसिद्ध थे। ई0 249 - 50 से प्रचलित संवत कल्चुरि संवत कहलाया। सातवीं सदी के उत्तरार्ध में वामराज देव ने इस वंश की स्थापना कीं इस वंश की एक शाखा सरयूपार / गोरखापार/ में थी। किन्ततु त्रिपुरी या डाहलमण्डल/चेदि/ के कलचुरि प्रभावशाली रहे। राष्ट्रकूट गोविंद तृततीय ने डाहकमण्डल जीत कर लक्ष्मणराज को वहां का सामंत बनाया उसकी मृत्यु के बाद पुत्र कोकल्ल प्रथम / ई0 850 - ई0 885/ ने स्वतंत्र शासन व्यवस्था कायम की। तिा त्रिपुरी/जबलपुर/ को अपनी राजधानी बनाई। इसने अपनी बेटी राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय से ब्याही। तथा स्वयं ने चंदेल कुमारी से विवाह किया। जिसके 18 पुत्र हुए। उनमें से एक ने दक्षिण कोसल /छग/ में बस गया और रतनपुर को अपनी राजधानी बनाई। रतनपुर का प्राचीन नाम तुम्माण था।

शंकरगण द्वितीय/ई0 885 - ई0 910/: इसनने चालुक्य विजयादित्य तृतीय के विरूद्ध राष्ट्रकूट बहनोई कृष्ण द्वितीय का साथ दिया। परन्तु हार गया।

युवराज प्रथम /ई0 915 - ई0 945/ : यह अपने भाई बालहर्ष /ई00 910 - ई0 915/ के बाद केयूरवर्ष की उपाधि लेकर शासक बना। राजशेखर नामक विख्यात कवि इसके दरबार में था। उसने अपनी कृति विद्धशाल भंजिका में ययुवराज को उज्जियिनी भुजंग कहा है।

धीरे - धीरे ग्यारहवीं सदी तक कलचुरि भारत की प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गए।

गंगेयदेव /ई0 1019 - ई0 1040/ : यह कोकल्ल द्वितीय का पुत्र था। इसने भेज परमार तथा राजेन्द्र चचोल से मिल कर चालुक्य जयसिंह पर असफल आक्रमण किया था। कुछ समय बाद यह मित्र भोज परमार से ही लड़ बैठा और हार गया। उड़ीसा को विजित कर त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि ली। इसने विक्रमादित्य का विरूद भी धारण किया। बनारस के कुद दिन बाद ही पंजाग सूबेदार अहमद नियाल्तगीन ने बनारस को लूटा अतः इसने कीर देया /कांगड़ा/ के तुर्कों को परास्त किया। इसने तीथराज प्रयाग में प्राणोत्सर्ग किए। पीछे इसकी सौ रानियां सती हो गईं।

कर्ण /ई0 1040 - ई0 1072/ : इसका मूल नाम लक्ष्मी कर्ण था। इसने इलाहाबाद को अपने राज्यमें शामिल किया। इसने भी त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि ली। कर्ण ने हूण राजकुमारी आवल्ल देवी से विवाह किया। तथा बनारस में कर्णमेरू शिवमंदिर का निर्माण कराया। अपनी बेटी वीश्र श्री का विवाह बंग नरेश जातवर्मन से किया। कीर्तिवर्मन चंदेल को पपरास्त किया। सोलंकी भीम से संधि कर परमारों से मालवा छीन लिया। किन्तु मालवा लूट के बंटवारे पर कर्ण और भीम में झगड़ा हो गया। ई0 1072 में कर्ण ने अपने बेटे के पक्ष में राज त्याग दिया।

यशःकर्ण /ई0 1072 - ई0 1123/ : अब तक कलचुरि सत्ता कमजोर पड़ने लगी थी। सोलंकियों ने दक्षिणी भाग विजित कर लिया। परमारों ने त्रिपुरी लूट ली। चंदेलों ने भी हराया। तथा गहड़वालों ने इलाहाबाद एवं बनारस छीन लिया।

जयसिंह /ई0 / : यशःकर्ण के पुत्र जयकर्ण को चंदेल मदनवर्मन ने हराया। उसका बेटा जयसिंह गद्दी पर बैठा तो वंश का सम्मान थोड़ा सा बढ़ा।

विजयसिंह /ई01180 - ई0 1212/ : जयसिंह के बाद शासक विजयसिंह के शासन काल में चंदेल नरेश त्रैलोक्य वर्मन ने त्रिपुरी के कलचुरि राज्य को जीत लिया। इसके बाद इनका पता नहीं चला। उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के हयोवशी राजपूत स्वयं को इनका वंशज कहते हैं।

अन्य कल्चुरि शाखाएं


रतनपुर के कलचुरि जिनकी प्रारंभिक राजधानी तुम्माण/वर्तमान तुमान/ थी। इस शाखा के नरेया जाजल्लदंव नं यशःकर्ण के समय स्वतंत्रता घोषित कर दी। एक अन्य शाखा ने चालुक्य तैलप द्वितीय के समय उसका दक्कन राज्य कलचुरि विज्जल ने छीन लिया। तथा 1160 ई0 के लगभग चालुक्य राजधानी भी जीत ली। विज्जल जैन धर्म का समर्थक था। वह अपने मंत्री, लिंगायत , शैव सम्प्रदाय के संस्थापक बसव से लड़ा तथा परास्त हुआ। विज्जल ने अपना राज त्याग सोमेश्वर के पक्ष में दिया। जिसने चोल एवं गंगों को भी हराया। इसके अनुज संकय ने 1177 ई0 से 1180 ई0 तक राज किया। इसके बाद आहवमल्ल राजा बना फिर सिंहण को हरा चालुक्य सोमेश्वर चतुर्थ ने इस कलचुरि शाखा का अंत किया।

दिल्ली के तोमर वंश


736 ई0 को तोमरों ने दिल्ली नगर को बसाया था। प्रारंभ में ये प्रतिहारों के सामंत थे। बारहवीं सदी तक स्वतंत्र रहे फिर चौहान विग्रहराज तृतीय ने इन्हें अपने अधीन कर लिया।

मेवाड़ के गुहिल


मेदपाट/मेवाड़/ के गुहिल या गुहिलोत जो सिसोदिया कहलाए की वंशावली आटपुर लेख /ई0 977/ से प्राप्त होती है। यही इनका प्रथ्थम उल्लेख भी है।अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार इस वंश का संस्थापक वलभी के अंतिम शासक शीलादित्य के बेटा गुहदत्त था। जबकि चारणों के वृतांत में बप्पा रावल इस वंश का संस्थापक माना जाता है। संभ्वतः वर्णित बीस राजाओं में यह आठवां या नौवां है। गुहिलों की प्रारंभिक राजधानी उदयपुर के निकट नागद्वद/नागदा/ में बप्पा रावल की समाधि है। बप्पा एवं गुह दोनों ही ब्राम्हण थे। दसवीं सदी में इनकी राजधानी आघट/अहर/ आ गई। प्रारंभिक आठवीं सदी में अरबों ने चित्तौड़ के र्मार्य /मोरी/ शासकों को हराया तब बप्पा ने वीरतापूर्वक अरबों के विरूद्ध सफलता प्राप्त की तथा मेवाड़ को अरबों से मुक्त कराया और राजधानी चित्तौड़ स्थानांतरित की। संभवतः इसी कारण इसे संस्थापक मान लिया गया होगा। इस वंश की दूसरी शाखा जयपुर में थी। दोनों शाखा प्रतिहारों के अधीन थीं। दसवीं सदी में गुहिल नरेश भतृभटृट ने अधीनता त्याग कर महाराजाधिराज की उपाधि ली। इसके पुत्र अल्लट ने संभ्वतः ई0 948 को कन्नौज पर शासन किया था। शाक्तिकुमार के समय परमार मुंज ने मेवाड़ का गौरव राजधानी आघटनगर को नष्ट कर दिया। ग्यारहवीं सदी में गुहिल इतिहास महत्वहीन है। बारहवीं सदी मेंकुछ समय गुहित कुमारपाल सोलंकी के अधीन रहे। बाद में सामंत सिंह ने जब पुनः मेवाड़ जीता तो 1171 ई0 में पुनः नद्दुल के चौहान कीर्तिपाल ने उसे जीत लिया। तब सामंत सिंह बागड़/डुंगरपुर/ में जा बसा। तब सामंत सिंह के भाई कुमार सिंह ने कीर्तिपाल को 1182 ई0 भगा कर आहट/आहाड़/ को अपनी राजधानी बनाया। जैत्रसिंह इस वंश का प्रथम शक्तिशाली राजा था। अंततः 1303 ई0 में रतनसिंह को हरा अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ विजित कर लिया। तथा रतन सिंह के भानजे चाहमान मालदेव को अपना सामंत बना दिया।

स्मरणीय तथ्य

- कन्नौज पर राजवंशों का कम - हर्ष, प्रतिहार, गहदवाल।

- कल्याणी का विभाजन अंत में यादव, होयसल तथा काकतीयों में हुआ।

- गुप्त युग से मध्य युग तक का प्रमुख राजनीतिक ग्रंथ - नीतिसार /कामंदक/

- राजकीय प्रभुसत्ता के आठ तत्व ?

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